​Dr. Harnarayan Saxena

​Dr. Harnarayan Saxena ​Dr. Harnarayan Saxena ​Dr. Harnarayan Saxena

​Dr. Harnarayan Saxena

​Dr. Harnarayan Saxena ​Dr. Harnarayan Saxena ​Dr. Harnarayan Saxena
  • Home
  • Audio
  • Books, Video and Audio
  • Naqshbandia Silsila
  • Buzurgans
  • Dr. Harnarayan Saxena
  • Feedback
  • Photo Gallery
  • More
    • Home
    • Audio
    • Books, Video and Audio
    • Naqshbandia Silsila
    • Buzurgans
    • Dr. Harnarayan Saxena
    • Feedback
    • Photo Gallery

  • Home
  • Audio
  • Books, Video and Audio
  • Naqshbandia Silsila
  • Buzurgans
  • Dr. Harnarayan Saxena
  • Feedback
  • Photo Gallery

Huzur Maharaj

1/2

34. हज़रत मौलाना शाह फ़ज़्ल अहमद ख़ाँ रायपुरी

 

जीवन चरित्र

जन्मभूमि और माता-पिता

  • भारतवर्ष में उत्तर प्रदेश राज्य के जिला फर्रुखाबाद में एक तहसील कायमगंज है । इसी तहसील के कस्बा रायपुर में हुज़ूर महाराज का जन्म 1847 ई॰ में हुआ था । यहीं आप का पालन-पोषण हुआ तथा कुछ वर्षों को छोड़ कर, जबकि वह जीविकोपार्जन के लिए फर्रुखाबाद में रहे, आप का अधिकांश जीवन यहीं रायपुर में ही व्यतीत हुआ । जीवन काल के अन्तिम समय में इसी स्थान पर आपने विसाल फ़रमाया (पार्थिव शरीर त्याग दिया) ।
  • आपके पूज्य पिताजी का शुभ नाम ज़नाब गुलाम हुसैन साहिब था, जो कश्मीर के महान सूफ़ी सन्त हज़रत मौलाना वलीउद्दीन साहिब (रहम॰) से बैअत थे (गुरु दीक्षा ली थी) और उनके खलीफ़ा भी थे । वह फौज में 'निशान बरदार' के पद पर कार्यरत थे ।
  • हुज़ूर महाराज की पूज्य माताजी हज़रत मौलाना अफ़जल शाह नक़्शबन्दी मुजद्दिदी (रहम॰) से बैअत थीं । हजरत मौलाना शाह साहिब जो मौलाना अबुल हसन नसीराबादी (रहम॰) के मुरीद व खलीफ़ा थे बड़ी मुहब्बत से पूज्य माताजी के क़ल्ब (हृदय) की तरफ तवज्जोह देते थे और उनके विषय में फ़रमाते थे कि मेरी बेटी 'मशीयते एज़दी' तब्दील कर देती है (वह ईश्वर की इच्छा और उसका विधान भी बदलने की क्षमता रखती है) । विश्व के विभिन्न धर्मों में ऐसी घटनाएं सुनने और देखने को मिलती हैं जहाँ ईश्वर अपने परम भक्तों की फरियाद (विनती) और आग्रह को स्वीकार करने के लिए वह अपना दैवी विधान भी बदल देता है ।
  • इसी सन्दर्भ में हुज़ूर महाराज की पूज्य माताजी की परम भक्ति और ईश्वर प्रेम के विषय में एक भजन की निम्नांकित पंक्तियाँ याद आती हैं -
  •           प्रबल प्रेम के पाले पड़ कर, प्रभु को नियम बदलने देखा ।
              उनका मान घटे घट जाये, जन का मान न टलते देखा ।।
  • पूज्य माताजी इन्तिहा दर्जे की नेक, पारसा (संयमी) और सीधी थीं । उनके स्वभाव में अपने-पराये की भावना छू तक नहीं गई थी और 'वसुधैव कुटुम्बकम्' (सारा विश्व ही कुटुम्ब के समान है) - इस सिद्धांत को उन्होंने अपने जीवन में पूर्ण रूप से उतार लिया था । उनके स्वभाव के इस अलौकिक गुण की प्रशंसा करते हुए हुज़ूर महाराज के गुरु भाई हजरत मौलाना हाज़ी अब्दुल ग़नी खाँ साहिब अपनी एक घटना सुनाया करते थे । एक दिन हुज़ूर महाराज के छोटे भाई हज़रत मौलवी विलायत हुसैन खाँ साहिब और हज़रत मौलाना हाज़ी अब्दुल ग़नी खाँ साहिब दोनों एक परीक्षा में सम्मिलित होने के लिए जाने लगे । दोनों ने अलग-अलग पूज्य माताजी से अर्ज़ किया, 'माई, मेरे लिए दुआ कीजिएगा' । उन्होंने फ़रमाया, 'अच्छा- इन्शा अल्लाह मैं दुआ करूंगी' । जब दोनों परीक्षा देकर वापस आये तो पहले ज़नाब हाजी अब्दुल ग़नी खाँ साहिब ने दरियाफ़्त किया- माई ! क्या आपने मेरे लिए दुआ की थी ? उन्होंने फ़रमाया, 'हाँ मैंने तेरे लिए दुआ की थी', लेकिन जब उनके लड़के हुज़ूर महाराज के छोटे आई साहिब ने उनसे दरियाफ्त किया तो उन्होंने साफ बतला दिया कि जब मैं तेरे लिए दुआ करने को होती तो तेरी जगह उसका (ज़नाब हाज़ी अब्दुल ग़नी खाँ साहिब का) नाम मेरी ज़ुबान पर आ जाता था । इसलिए मैं उसके लिए तो दुआ करती रही लेकिन तेरे लिए दुआ करना भूल गई । यह थी उनके प्रेम की व्यापकता कि अपने सगे लड़के के लिए दुआ करना भूल गईं, लेकिन ज़नाब हाज़ी अब्दुल ग़नी खाँ साहिब के लिए बराबर दुआ करती रहीं जिनको वह अपने सगे लड़के से ज्यादा प्यार करती थीं ।
  • उक्त तथ्यों से यह स्पष्ट होता है कि हुज़ूर महाराज के पूज्य माता-पिता दोनों ही परम सन्त तथा उच्च कोटि का आध्यात्मिक जीवन व्यतीत करने वाले आदर्श मानव थे । उनकी पूज्य माताजी परम सन्त होने के साथ ही साथ श्रेष्ठ मानवता की जीवन्त प्रतिमूर्ति ही थीं । अत: इसमें कोई सन्देह नहीं कि ऐसी परम सन्त आदर्श माता की कोख से जन्में हुज़ूर महाराज ने धार्मिक एवं साम्प्रदायिक एकता तथा सर्व धर्म समन्वय के क्षेत्र में जिस नूतन आध्यात्मिक क्रान्ति का सूत्रपात किया, वह उनके परिवार के उत्कृष्ट आध्यात्मिक संस्कारों के अनुरूप ही था ।
  • हुज़ूर महाराज के पूज्य सत गुरुदेव
    हज़रत खलीफ़ा अहमद अली खाँ साहिब (रहम॰)
  • कायमगंज जिला फर्रुखाबाद (उ.प्र.) में एक महान सूफी सन्त हज़रत खलीफ़ा अहमद अली खाँ साहिब मऊरशीदाबादी कायमगंजी (रहम॰) निवास करते थे । कायमगंज को पुराने समय में मुऊरशीदाबाद कहते थे । इसलिए ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब (रहम॰) के नाम के आगे मऊरशीदाबादी भी लिखा जाता है ।
  • आप फारसी और अरबी के महान विद्वान थे और इन भाषाओं के कठिन से कठिन ग्रन्थ आपको कंठस्थ थे । आप फारसी के काव्य ग्रन्थ 'गुले क़िश्ती', 'बदरचाह', 'मसनवी हलाली' इत्यादि को बड़े रोचक ढंग से पढ़ाते थे । धर्मशास्त्र और शरीअत से सम्बन्धित तथ्यों की व्याख्या करने में आपको पूर्ण दक्षता हासिल थी । क़ुरआन शरीफ को शुद्ध उच्चारण के साथ पढ़ने की कला में भी आप पूर्ण दक्ष थे । इस विषय पर आपने कई पुस्तिाकाएँ लिखी हैं । आपने दो दीवान (कविताओं के संग्रह) और एक काव्य ग्रन्थ 'महारबा काबुल' लिखा है । गद्य लेखन में भी आप की योग्यता अद्वितीय थी । आपने एक पुस्तक 'फ़तवाए अहमदी' लिखी है । आप धर्म पालन में बड़े सख़्त और सुन्नत (वह कार्य जो पैगम्बर साहिब सल्ल॰ ने किया हो) के अनुयायी थे । आप अक्सर फ़रमाते थे कि सुन्नत का अनुकरण करने से आदमी महबूब (ईश्वर और हज़रत पैगम्बर साहिब सल्ल॰ का प्रेम पात्र) हो जाता है ।
  • ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब के पास जो लड़के पढ़ने आते थे उनमें हुज़ूर महाराज भी थे जो बहुत ही तीव्र बुद्धि के तथा आज्ञाकारी स्वभाव के थे । ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब के परिवार में केवल उनकी धर्मपत्नी और उबका एक लड़का था जिसका नाम अब्दुला था । जब यह लड़का 15-16 वर्ष का हुआ तो अचानक उसकी मृत्यु हो गई । इस विरह से सब को बड़ा दुःख हुआ, विशेष रूप से लड़के की माँ को । वे दिन-रात उसकी याद में रोया करती थीं । एक दिन ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब ने अपनी पत्नी को समझाया कि रोने से कुछ फायदा नहीं, जिस हालत में परमात्मा ने रखा है, उसमें खुश रहो । वह बोलीं, 'मैं बहुत कोशिश करती हूँ मगर सब्र नहीं आता, बराबर उसकी याद आ-आकर रुलाती है ।' आपने कहा, 'तुम फज़्लू (हुज़ूर महाराज) को ही अपना बेटा क्यों नहीं समझ लेती?' बस ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब की यह बात सुनते ही उनकी धर्मपत्नी के दिल की कुछ ऐसी कैफियत हो गई कि वह उसी दिन से हुज़ूर महाराज को अपना बेटा मानने लगीं और हुज़ूर महाराज भी उनको अपनी सगी माँ मानने लगे । यह भी एक संयोग की बात थी कि ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब के पुत्र 'अब्दुल्ला' हुज़ूर महाराज के हम शक्ल थे (दोनों की शक्ल एक-सी थी) । यह जानकारी इस लेखक को हुज़ूर महाराज के सगे पोते पूज्य ज़नाब शाह मंज़ूर अहमद खाँ साहिब ने अपने एक पत्र में देने की कृपा की थी ।
  • परम पूज्य ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब की धर्मपत्नी के विषय में पूज्य चच्चा जी महाराज ने एक बार कानपुर सत्संग के अवसर पर हुज़ूर महाराज के जीवन की कुछ घटनाएं सुनाते हुए यह फ़रमाया था कि ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब अपने विसाल के वक्त अपनी धर्मपत्नी को हुज़ूर महाराज के ही सुपुर्द कर गये थे । वह उनके शरीरान्त के बाद वहीं कायमगंज में अपने नवासों के यहाँ रहने लगी थीं । यद्यपि उनके नवासों की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी थी लेकिन वह उनके मकान के सामने ही एक फूस की झोंपड़ी डलवा कर रहती थीं । उनके भोजन, वस्त्र आदि की व्यवस्था हुज़ूर महाराज ही अपनी ओर से करते थे । उनके लिए सतनजा अनाज खरीद देते थे (जो उनको पसन्द था) और छठे महीने में उनके लिए कपड़े बनवा देते थे । वह इतना सादा भोजन करती थीं कि उस सतबजा अनाज की खुश्क रोटियाँ ही अक्सर खा लेती थीं । साथ में कोई सब्जी और दाल भी नहीं लेती थीं । परम पूज्य ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब की धर्मपत्नी के विषय में पूज्य चच्चाजी महाराज का उक्त कथन इस लेखक को उनके शिष्य श्रीमान बृजनारायण जी मेहरोत्रा की दैनिक डायरी दिनांक 13-11-42 में पढ़ने को मिला था । जब तक वह जीवित रहीं हुज़ूर महाराज एक सगे पुत्र की तरह उनकी सेवा बड़ी निष्ठा के साथ करते रहे ।
  • ज़नाब खलीफ़ा जी के स्वभाव में बेहद परदापोशी थी । कायमगंज के लोग उन्हें फ़ारसी और अरबी पढ़ाने के लिए एक विद्वान मौलवी शिक्षक के रूप में तो जानते थे और यह भी जानते थे कि वह सज्जन और ईश्वर भक्त हैं । लेकिन लोगों को यह नहीं मालूम था कि ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब सांसारिक विद्याओं के साथ ही साथ अध्यात्म विद्या के भी अथाह समुद्र हैं । हुज़ूर महाराज ने ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब का संक्षिप्त जीवन-वृतान्त तथा उनके उच्चतम आध्यात्मिक जीवन की कुछ घटनाएँ एक पुस्तिका में प्रकाशित की हैं । इस पुस्तिका का नाम है-'जमीमा हालात मशायख़ नक़्शबन्दिया, मुज़द्दिदिया, मज़हरिया' जो हुज़ूर महाराज द्वारा उर्दू भाषा में लिखी गई है । इस ज़मीमा के विषय में हुज़ूर महाराज ने इसकी भूमिका में लिखा है कि शुरु में आपका इरादा नक़्शबन्दिया सिलसिले की गुरु परम्परा के हालात, जो आपने एकत्र किये थे, छपवाने का था । उसी बीच आपको यह मालूम हुआ कि एक बहुत ही उपयुक्त पुस्तक 'हालात मशायख़ नक़्शबन्दिया मुज़द्दिदिया' मौलाना मुहम्मद हसन साहिब (निवासी कोटा, कीरतपुर, जिला बिजनौर) ने लिखी है । अत: उन्होंने अपनी पुस्तक छपवाने की जरूरत नहीं समझी, परन्तु उस पुस्तक में नक़्शबन्दिया सिलसिले के शज्रः (गुरु परम्परा की वंशावली) के अनुसार तीन महापुरुषों के हालात नहीं थे । अत: उन्होंने उक्त जमीमा परिशिष्ट के रूप में प्रकाशित किया जिसमें इन तीन महापुरुषों के हालत लिखे हुए हैं :- हज़रत मौलाना मौलवी शाह मुरादुल्लाह (कु॰सि॰), हज़रत सैयद अबुल हसन साहिब नसीराबादी (कु॰सि॰) और हजरत सैयद खलीफ़ा अहमद अली खाँ साहिब मऊरशीदाबादी (कु॰सि॰) । इस प्रकार मौलाना मुहम्मद हसन साहिब द्वारा लिखित पुस्तक तथा हुज़ूर महाराज द्वारा रचित जमीमा इन दोनों पुस्तकों को एक साथ मिला कर पढ़ने से नक़्शबन्दिया सिलसिले के सभी महापुरुषों के हालात शज्रः शरीफ के मुताबिक क्रमवार हज़रत पैगम्बर मोहम्मद साहिब (सल्ल॰) से लेकर हजरत खलीफ़ा अहमद अली खाँ साहिब (रहम॰) तक मिल जाते हैं ।
  • ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब ने नौ रबी उल अव्वल तेरह सौ सात हिजरी बरोज़ दो शम्बा विसाल फ़रमाया । आपकी पवित्र मज़ार गुजरी नूरखाँ व कुबेरपुर (कायमगंज) के नज़दीक जो कब्रिस्तान नन्दू खाँ का मशहूर है, वहाँ मस्जिद के निकट स्थित है । ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब के पुत्र अब्दुल्ला की कब्र खलीफ़ा जी साहिब की मजार शरीफ के बराबर बनी है । इससे मिली हुई पूर्व दिशा में बव्वाजी (पूज्य खलीफ़ा जी साहिब की धर्मपत्नी) की है । पूज्य खलीफ़ा जी साहिब के पाँइती में कच्ची कब्र आपके नवासे जवाब अली शेर खाँ साहिब की है जो हुज़ूर महाराज के खलीफ़ा थे ।
  • परम पूज्य ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब की मज़ार शरीफ़ शुरु में कई वर्षों तक मिट्टी तथा पुरानी ईटों से बनी हुई हालत में रही । बाहर से आने वाले सत्संगी भाइयों को उनकी मज़ार शरीफ़ को ढूंढ़ने में बड़ी असुविधा होती थी क्योंकि वहाँ मज़ार पर कोई ऐसा निशान अथवा ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब का नाम भी नहीं लिखा हुआ था । इस असुविधा को दूर करने के लिए हुज़ूर महाराज के पौत्र ज़नाब शाह मंज़ूर अहमद खाँ साहिब ने उस मज़ार को पुख्ता बनवाने का इरादा किया ।
  • उन्होंने ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब की मज़ार शरीफ़ की तामीरात (निर्माण कार्य) के लिए मिस्त्री जिसका नाम मुअज्ज़म खाँ था नियुक्त किया, वह पक्के नमाज़ी और शरीअत के पाबन्द थे । वह बावुज़ू (पवित्र) होकर कार्य करते थे । उक्त मज़ार शरीफ़ का चबूतरा तामीर (निर्मित) होने के बाद जब उसकी ताबीज बना रहे थे तो उस मज़ार के अन्दर से उन्हें यह आवाज सुनाई दी, 'मियाँ ! क्या कर रहे हो ? फ़क़ीर तो गुमनाम ही रहा करते हैं ।' बस यह आवाज़ सुन कर वह वहाँ से उठे और ज़नाब मंज़ूर अहमद खाँ साहिब के पास आये और बोले, 'मौलाना साहिब, यह एक ज़िन्दा वली की मज़ार है । मुझे इस तरह की आवाज सुनाई दी है कि फ़क़ीर तो गुमनाम ही रहा करते हैं ।' अब आप क्या कहते हैं ? यह काम मेरी हिम्मत के बाहर है ।
  • मियाँ मुअज्ज़म की ऊपर लिखित बात का ज़नाब शाह मंज़ूर अहमद खाँ साहिब ने जो जवाब दिया तथा इस विषय में उन्होंने ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब से जो दुआ की उसके बारे में यह लेखक उन्हीं के शब्दों में लिख रहा है- 'मैंने उनको (मियाँ मुअज्जम को) तसल्ली देकर कहा, अब मैं हजरत साहिब से (पूज्य खलीफ़ा जी साहिब से) अपने मुर्शिद के वास्ते से अर्ज करता हूँ । आप भी मेरे हक में सिफारिश करें । इस ख़ादिम बे अपने पीरो मुर्शिद हजरत मौलाना अल्हाज़ शाह अब्दुल ग़नी खाँ आफ़रीदी नक़्शबन्दी, मुजद्दिदी, मज़हरी, नईमी, फ़ज़्ली (रहम॰) के वास्ते से यह अर्ज़ किया कि, 'या हज़रत ! यह सच है कि फ़क़ीर गुमनाम ही रहा करते हैं, मगर हम जैसे बन्दे गुनहगार किस तरह से आपके यहाँ हाज़िरी दे सकें । आप का मज़ार शरीफ़ आम कब्रिस्तान में है । हम भूल जाते हैं (उसको पहचानने में); इसलिए सिर्फ़ निशान चाहते हैं ताकि मुझको व दीगर आने वाले भाइयों को हाज़िरी देने में आसानी हो । यह मेरी दिली ख़्वाहिश है । उसे आप कबूल फ़रमायें और हम सब पर निगाहें करम हमेशा बनायें रखें । खुदा का शुक्र है कि आज वहाँ छत पड़ गई है और चार दिवारी हो गई है-वर्ना धूप और गोखरू (काँटे) इस क़दर थे कि एक कदम चलना या दस मिनट वहाँ बैठ कर फातेहा पढ़ना कठिन था ।'
  • एक वाक़या इस ग्रन्थ के लेखक ने अपनी दैनिक डायरी दिनांक 2-4-53 में अभी हाल ही में पढ़ा जो परम पूज्य ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब (रहम॰) की मजार से सम्बन्धित है । इसका उल्लेख यह सेवक अपनी डायरी में लिखे हुये शब्दों में ही इस प्रकार कर रहा है:- दिनांक 2-4-53 को कायमगंज स्टेशन से उतर कर हम लोग पहले परदादा गुरु महाराज (परम पूज्य ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब रहम॰) की पवित्र समाधि के लिए रवाना हुए । रास्ते में पूज्य मेहरोत्रा साहिब ने (श्रीमान बृजनारायण जी मेहरोत्रा जो पूज्य चच्चाजी महाराज के शिष्य थे) मुझसे और श्रीमान ईश्वर दत्त जी शर्मा से फ़रमाया कि हम लोगों को एकदम चच्चाजी में फ़ना होकर परदादा गुरु महाराज के सामने हाजिर होना चाहिए । इतनी बड़ी हस्ती के सामने बिल्कुल चच्चाजी महाराज में फ़ना होकर चलना बहुत ही जरूरी है । जब हम लोग नजदीक पहुँचे, मुझको अन्दर से इस बात का खौफ लग रहा था कि उनके सामने कोई गैर ख्याल न आ जाये । बस ज्यों ही मैं उनके सामने पहुँचा, एकदम आँखों में आँसू आ गये और मैं रो पड़ा । पूज्य मेहरोत्रा साहब और श्रीमान शर्मा जी भी रो पड़े । कुछ मिनटों के बाद हम लोग वहीं जमीन पर बैठ गये । पूज्य परदादा गुरु महाराज की समाधि में कुछ पुरानी ईटें लगी हुई थीं । कोई नया आदमी तो उसको पहचान ही नहीं सकता था । उस समय कड़ी धूप थी और जमीन काफी तप रही थी लेकिन वहाँ जहाँ हम लोग बैठे हुए थे एक अजीब वातावरण पैदा हो गया । फौरन ठंडी हवा चलती हुई महसूस हुई । उस जमीन पर गोखरू और कांटे पड़े हुए थे लेकिन ज्यों ही हम लोग वहाँ बैठे वह जमीन एकदम गद्दे की तरह मुलायम और ठंडी मालूम होने लगी । हम लोग थोड़ी देर पूजा करने के बाद उठे । हुज़ूर महाराज के पौत्र परम पूज्य शाह मंज़ूर अहमद खाँ साहिब हम लोगों के साथ थे । उन्होंने उस जमीन की मिट्टी हम लोगों को दी और फ़रमाया कि इस मिट्टी में भी बहुत असर है । उन्होंने प्रसाद के बताशे हम लोगों को दिए ।
  • ज्यों ही हम लोग वापस चलने को हुए कि एक बुढ़िया आकर खड़ी हो गई और परदादा गुरु महाराज का नाम लेकर कहने लगी कि क्या उनकी मजार पर आये हो । ज़नाब शाह मंज़ूर अहमद खाँ साहिब ने फ़रमाया कि जी हाँ । उन्होंने उस बुढ़िया से परदादा गुरु महाराज के खानदान वालों के बारे में पूछा तो उसने कहा कि हाँ इसी सरईयाँ मुहल्ले में रहते हैं उनके नवासे के लड़के । हम लोगों ने पूछा क्या वह अभी घर पर होंगे ? उसने कहा, हाँ जरूर मिलेंगे । औरतें तो होंगी ही । हम लोग उस घर में पहुँचे जहाँ उस समय परदादा गुरु महाराज (पूज्य ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब) के नवासे के लड़के रहते थे । उस समय घर में कोई मर्द तो थे नहीं । खेतों में शायद चले गये थे । औरतें थीं । हम लोग उस महान पवित्र कोठरी में गये जहाँ परदादा गुरु महाराज ने बरसों खुदा की इबादत की थी । वहाँ पहुँचते ही हम लोगों को एक ऐसी अपूर्व शान्ति का अनुभव हुआ जो वर्णन के परे थी ।
  • उक्त घटना के अलावा एक घटना की जानकारी ज़नाब मंज़ूर अहमद खाँ साहिब (हुज़ूर महाराज के पोते) ने अपने एक पत्र में इस लेखक को दी थी, जो उन्हीं के शब्दों में दी जा रही है-
  • 'इस ख़ादिम ने उस कोठरी का दीदार किया है (जहाँ ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब ने बरसों इबादत की थी) बड़ी पुर रौनक जगह है । मेरी मुलाकात मजार शरीफ की तामीर (निर्माण) के वक्त ज़नाब अली शेर खान साहब के दामाद नजर मुहम्मद खान साहब से हुई थी । वह मुझे घर ले गये थे । यह मुलाकात 12-4-75 को हुई थी । एक बार मेरे साथ में मेहरोत्रा साहिब (श्री बृजनारायण मेहरोत्रा) व पूज्य श्रीमान् बाबू भोला नाथ भल्ले साहब एस॰पी॰ (पुलिस अधीक्षक); ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब की खानकाह में (कोठरी में) गये थे । वह जगह ऐसी थी कि हम लोग हैरान रह गये यानी वहाँ पर इतना तेज ज़िक्र हो रहा था जो हम लोगों को बरदाश्त नहीं हो रहा था । एक खास बात वहाँ घरवालों ने बताई कि अगर किसी बच्चे को रोना (चीख) लग जाये या कोई नज़र का असर हो जाये तो उस मरीज़ को उस कोठरी में डाल दें तो वह मरीज या बच्चा फौरन ठीक हो जाता है । घरवालों ने (ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब के नवासे के दामाद ने) ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब का एक जोड़ा कपड़ा व जानमाज भी हम लोगों को दिखाया था ।
  • परम पूज्य ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब (रहम॰) की पैदल सफ़र करने की असीम सामर्थ्य का जिक्र करते हुए हजरत मौलवी हाजी अब्दुल ग़नी खाँ साहिब (रहम॰) ने कानपुर में सत्संगी भाइयों को एक घटना दिनांक 14-11-42 को सुनाई थी जो इस प्रकार है - एक दफ़ा ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब किसी साहब से मिलने के वास्ते कायमगंज से फर्रुखाबाद हुज़ूर महाराज को साथ लेकर रवाना हुए, मगर फर्रुखाबाद पहुँचने पर पता चला कि वह साहब कायमगंज गये हुए हैं । आप फौरन वहाँ से लौट पड़े और फर्रुखाबाद से कायमगंज गये । वहाँ पता लगा कि वह लखनऊ गये हुए हैं । आप फौरन ही वहाँ से लौटे और फर्रुखाबाद पहुँचे । ज़नाब हुज़ूर महाराज ने सोचा कि शायद यहाँ ठहर कर आप फिर चलेंगे । मगर ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब वहाँ भी न रुके । हुज़ूर महाराज ने आप से अर्ज किया कि साहिब मैं तो यह समझता था कि कहीं आप ठहर जायेंगे । आपने फ़रमाया, अच्छा तुम मेरे पीछे यह दो अल्फ़ाज (शब्द) कहते हुए चले आओ । खुदा चाहेगा तो तुम्हें थकान महसूस न होगी । अत: ऐसा ही हुआ । एक मस्जिद पर पहुँच कर आपने कुएँ से पानी भरा और वुज़ू वगैरह से फरागत होकर आपने हुज़ूर महाराज के वास्ते पानी रख दिया और आकर उनके पैर दबाने बैठ गये । हुज़ूर महाराज थक तो गये ही थे, इसलिए आकर लेटे हुये थे । आपने जब अपने गुरु महाराज (ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब) को देखा कि वह उनके पैर दबा रहे हैं तो फौरन उठ कर बैठ गये और मुआफ़ी माँगने लगे । ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब ने फ़रमाया कि भाई तुम थक गये होंगे, इस वास्ते तुम्हारे पैर दबाने लगा हूँ । हुज़ूर महाराज ने अर्ज किया कि मैं थका नहीं हूँ । आपने फ़रमाया कि अगर थके न होते तो नमाज पढ़ लेते । हुज़ूर महाराज फौरन उठे और वुज़ू के वास्ते कुएँ से पानी भरने के लिए चले, तो ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब ने फ़रमाया कि मैं तुम्हारे वास्ते पानी पहले ही भरकर रख आया हूँ । हुज़ूर महाराज ने अपने हाथ-मुँह धो कर नमाज अदा की ।
  • एक बार हुज़ूर महाराज के गुरु भाई मौलाना शाह हाजी अब्दुल ग़नी खाँ साहिब (रहम॰) ने कानपुर में सत्संगी भाइयों से ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब (रहम॰) की शक्ल, सूरत और डील-डौल के विषय में फ़रमाया था कि, 'ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब नाटे, दोहरे बदन के और गंदुमी रंग के थे । आपका चेहरा मय दाढ़ी के बिलकुल गोल था । आप पठान थे ।' जितने भी काबुली पठान हैं मय अमीर काबुल के खानदान के सब के सब इसी सिलसिले के हैं ।
  • हुज़ूर महाराज की शिक्षा और जीविकोपार्जन
  • हुज़ूर महाराज ने मिडिल स्कूल परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की । इसके पश्चात नार्मल ट्रेनिंग में प्रवेश लिया । वहाँ की परीक्षा भी प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की । उन्होंने अरबी और फारसी की तालीम हजरत ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब से हासिल की जो उनके पूज्य गुरुदेव भी थे । उस जमाने में नार्मल ट्रेनिंग करने के बाद फौरन ही डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के स्कूलों में अध्यापक के पद पर नियुक्ति हो जाती थी । परन्तु हुज़ूर महाराज ने इस ख़्याल से कि उन्हें अपने पूज्य गुरुदेव (हजरत ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब) की सेवा से वंचित होना पड़ेगा, डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के स्कूलों में अध्यापक पद पर जाना स्वीकार नहीं किया और आजीवन अपने पूज्य गुरुदेव के निकट सम्पर्क में रहते हुए उनकी सेवा में लगे रहे । हुज़ूर महाराज खाली समय में मुहल्ले तथा क़स्बे के लड़कों को उर्दू फारसी की शिक्षा देते थे । उनमें से अधिकांश लड़के तो गरीब परिवारों के होते थे । अत: हुज़ूर महाराज उन्हें बड़े प्रेम से निःशुल्क शिक्षा देते थे । केवल कुछ अच्छे परिवारों के लड़के जो कुछ भी श्रद्धा पूर्वक पारिश्रमिक के रूप में हुज़ूर महाराज को दे देते, उसे वह सहर्ष स्वीकार कर लेते और उसी में अपनी गुजर-बसर करते । हुज़ूर महाराज ने अपने जीविकोपार्जन की एक नसीहत आमेज़ (शिक्षाप्रद) घटना अपनी पुस्तक 'जमीमा हालात मशायख नक़्शबन्दिया' में लिखी है, जो उन्हीं के शब्दों में नीचे अंकित की जा रही है –
  • ''एक बार मैं बेकार हो गया था और दसवीं तारीख माह दिसम्बर की थी । आपने (हजरत खलीफ़ा जी साहिब ने) मुझसे दरियाफ्त किया-किस क़दर तनख्वाह में (कितने वेतन में) तुम्हारी गुजर हो जायेगी? मैंने अर्ज किया कि हजरत, पाँच रुपया माहवारी अलावा खुराक के वास्ते दुआ कीजिएगा । हजरत ने जरा से तअम्मुल (विचार) के बाद फ़रमाया कि तुम पहली दिसम्बर से इस तनख्वाह पर नौकर हो गये । यह सुन कर मुझे यकीन न हुआ । फिर हजरत ने फ़रमाया कि तुझे यह बात झूठी मालूम हुई ? मैंने अर्ज किया कि हजरत सच होगी, मगर दसवीं तारीख तक मुझे खबर न हो, यह कैसी बात है । उस वक्त हजरत खलीफ़ा जी साहिब ने बन्दा को नसीहत की कि, अपने मक्शूफात को (गुप्त बातों को जो आध्यात्मिक साधना से प्रकट होने लगती हैं) सब लोगों से छिपाना चाहिए । देखो, तुम-सा मुरीद मुख्लिस (निष्ठावान शिष्य) भी यकीन नहीं करता तो फिर औरों से क्या उम्मीद हो ? जब मैं हजरत से जुदा हुआ तो उसी वक्त अपनी नौकरी का हाल मालूम हो गया कि मुन्शी बद्रीप्रसाद वकील ने जराद में नौकर करा दिया है । उसी वक्त अपने काम पर गया और बीस रोज बाद पूरी तनख्वाह पायी (पहली दिसम्बर से 31 दिसम्बर तक का पूरा वेतन प्राप्त किया ।)''
  • जैसा कि ऊपर निवेदन किया जा चुका है कि हुज़ूर महाराज खाली समय में मुहल्ले तथा क़स्बे के लड़कों को उर्दू फारसी की शिक्षा प्रदान करते थे । जब वह वृद्ध हो चले और उनकी आर्थिक स्थिति ठीक न रहने लगी तो उन्होंने फर्रुखाबाद के मिशन स्कूल में उर्दू, फारसी की शिक्षा देने के लिए अध्यापक के पद पर कार्य करना स्वीकार कर लिया । फर्रुखाबाद में हुज़ूर महाराज ने मुफ्ती साहब के मदरसे के नजदीक रहने के लिए एक कोठरी ले रखी थी । यहाँ भी वह फुर्सत के समय मदरसे के लड़कों को उर्दू, फारसी और अरबी की तालीम देते थे । यहाँ पर हुज़ूर महाराज के परम शिष्य महात्मा रामचन्द्र जी महाराज प्रथम बार उनके सम्पर्क में आये । (इस घटना का विस्तृत विवरण अगले अध्याय में दिया जा रहा है ।) महात्मा रामचन्द्र जी महाराज के साथ ही धीरे-धीरे कई हिन्दू सत्संगी भाई हुज़ूर महाराज की सेवा में उपस्थित होकर उनसे रूहानियत की तालीम (आध्यात्मिक शिक्षा) ग्रहण करने लगे । फर्रुखाबाद के कुछ रूढ़िवादी और कट्टरपंथी मुसलमानों को हुज़ूर महाराज का यह उदार दृष्टिकोण पसन्द न आया । अत: उन लोगों ने हुज़ूर महाराज को विभिन्न प्रकार से परेशान करना आरम्भ कर दिया । हुज़ूर महाराज बड़े ही निर्भीक और उदार दृष्टिकोण वाले महापुरुष थे । वह ऐसे संकीर्ण और रूढ़िवादी मुसलमानों की आलोचना और विरोध की परवाह न करते हुए हिन्दुओं और अन्य धर्मावलम्बियों को बिना किसी धार्मिक भेदभाव के अपनी रूहानियत की तालीम से फैज़याब (लाभान्वित) करते रहे ।


Find out more

Maulvi Abdul Gani Sahab

35. ज़नाब हज़रत शाह अब्दुल ग़नी खाँ साहब (रहम॰)

 जन्म, बचपन व शिक्षा

  • हज़रत शाह अब्दुल ग़नी खाँ साहब (रहम॰) का जन्म कस्बा कायमगंज जिला फर्रुखाबाद में एक सम्पन्न पठान घराने में हुआ था । आप अपने माता-पिता के एक मात्र सन्तान थे । आपकी प्रारम्भिक शिक्षा वहीं के एक मदरसे में हुई । आप बचपन से सच बोलने के लिए मशहूर थे । कुसूर में किसी झगड़े के निपटाने के लिए और सच्चाई जानने के लिए आपको तलब किया जाता था । क्यों कि आपके मुदर्रिसात जानते थे कि आप कभी झूठ न बोलेंगे ।
  • जब आप कुछ बड़े हुए तो आपके किबला वालिद साहब ज़नाब हाज़ी हसन खाँ साहब आपको उसी क़स्बे के एक काबिलीयत के लिए विख्यात मौलवी ज़नाब हज़रत खलीफा अहमद अली खाँ साहब की खिदमत में ले गये और उनसे इल्तिजा की ''यह बच्चा आपके सुपुर्द है । आप इसे तालीम अता करें ।'' इसके पहले ज़नाब खलीफा जी साहब के इकलौते बेटे, जिनको वह अब्दुल्ला कह कर पुकारते थे, का इन्तकाल हो चुका था और आपने पढ़ाने का काम बन्द कर दिया था । ज़नाब खलीफा जी साहब ने हज़रत शाह को बगौर देखा और अपने मरहूम बेटे की हम शक्ल पाया । ज़नाब खलीफा जी साहब ने आपका हाथ पकड़ कर बड़े प्यार से जौजा मुकद्दसा के पास ले गये और उनसे फ़रमाया ''लो तुम्हारा अब्दुल्ला आ गया ।'' वह फौरन उठीं और हज़रत शाह साहब को सीने से लगा लिया । वह बोली 'यह सचमुच मेरा अब्दुल्ला है ।'' बावजूद कि ज़नाब खलीफा जी साहब बच्चों को तालीम देना बन्द कर चुके थे, हज़रत शाह साहब को शागिर्दी में लेना कबूल कर लिया । थोड़े ही दिनों में आपकी दुनियावी तालीम में इतना कामिल बना दिया कि उनकी उम्र का कोई लड़का उनकी सानी न था ।
  • हज़रत शाह साहब खुद फ़रमाया करते थे कि एक मरतबा आप ज़नाब खलीफा जी साहब के यहाँ 3, 4 दिन लगातार नहीं गये, तो उनकी वालिदा माँजिदा ने पूछा “तुम 3, 4 दिन से ज़नाब खलीफा जी साहब के यहां पढ़ने को नहीं जा रहे हो ?” हज़रत शाह साहब ने जवाब दिया “ज़नाब खलीफा जी साहब ने मुझे इतना पढ़ा दिया है कि बस्ती में कोई लड़का इल्मियत में मेरी बराबरी नहीं कर सकता ।”
  • ज़नाब खलीफा जी साहब हज़रत शाह साहब के न आने से बेचैन हो गये और खुद हज़रत शाह साहब के घर तशरीफ ले गये और उनसे पढ़ने न आने की वजह दरयाफ़्त की । इस पर आपकी वालिदा माँजिदा ने परदे में खड़े होकर आपके ऊपर लिखे हुए जवाब को बताया । तब ज़नाब खलीफा जी साहब ने फ़रमाया, ''अभी तो उसने दरिया में से एक कतरा हासिल कर पाया हैं ।'' इस के बाद आपको पढ़ने आने की ताकीद करके वापस चले गये ।
  • उसके कुछ ही दिनों बाद वहीं कायमगंज की एक मस्जिद में एक आलिम साहब ने आकर कयाम किया और ज़नाब खलीफा जी साहब को उन आलिम साहब से मिलने का इत्तिफ़ाक़ हुआ । बातचीत के आखिरी हिस्से के दौरान में उन आलिम साहब ने ज़नाब खलीफा जी साहब से कोई बात दरयाफ़्त की । ज़नाब साहब को उस बात की जानकारी न थी । लिहाज़ा उन्होंने सादा तरीके से कायमगंजी रोजमर्रा की भाषा में जवाब दिया ''मलूम नहीं ।'' इस पर आलिम साहब ने तञ्ज किया । ''पठान चाहे जितना काबिल हो जाय उसकी पठानी बू नहीं जाती ।''
  • ज़नाब खलीफा जी साहब ने वहाँ से रुखसत होते वक्त फ़रमाया ''मैं आपके पास एक पठान बच्चे को भेजूंगा, आप उसका इम्तहान लें ।'' घर वापस आने पर हज़रत शाह साहब ज़नाब खलीफा साहब की खिदमत में हाजिर हुए । ज़नाब खलीफा जी साहब ने आपको बताया कि फलाँ मस्जिद में फलाँ हुलिया के एक आलिम साहब ठहरे हुए हैं और हुक्म किया कि अगले दिन आपको आलिम साहब के पास जाना है । आगे फ़रमाया कि आलिम साहब आपसे जो भी सवाल पूछें उनका सही सही जवाब देना, और जब आलिम साहब पूछना बन्द कर दें तो आप उनसे ऐसा सवाल पूछें कि आलिम साहब उसका जवाब न दे सकें ।
  • ज़नाब खलीफा जी साहब के यहाँ से रुखसत होकर हज़रत शाह साहब चिन्तामग्न घर लौटे । रात में आपने कई वजायफ पढ़े और अल्लाह पाक से दुआ माँगी कि इम्तहान के मौक़े पर ऐसे कामयाब हों कि ज़नाब खलीफा जी साहब खुश व मुतमैयन रहें ।
  • दूसरे दिन हज़रत शाह साहब उन आलिम साहब की खिदमत में हाजिर हुए और आदाब पेश किया । आलिम साहब ने आपसे सवालात पूछने शुरू किये । हज़रत शाह साहब ने हर सवाल का सही और मौजूं जवाब दिया । जब आलिम साहब ने आगे और सवाल करना बन्द कर दिया तो आपने आलिम साहब से बड़ी आजिजी से यह पूछा- ''ज़नाब मेरी समझ में एक बात नहीं आती आप बताने की इनायत फ़रमायें । “उर्दू के हरूफ में हर्फ अलिफ़ (।) है और लाम (J) भी है । फिर हर्फ लाम अलिफ़ (IJ) क्यों बनाया गया ?” आलिम साहब हज़रत शाह की इस बात का जवाब नहीं दे सके और बड़े महजूब हुए । शर्मिन्दगी मिटाने के लिए हज़रत शाह साहब को कुछ मिठाइयाँ खाने को पेश की । हज़रत शाह साहब ने उन मिठाइयों को खाने से यह कह कर इनकार कर दिया कि पठान परिवारों में बाजार की मिठाइयाँ इस्तेमाल में नहीं आती और घरों में जो मिठाइयाँ वालिदायें तैयार करती हैं वही खायी जाती हैं ।''
  • इस प्रकार हज़रत शाह साहब ने उस छोटी से उम्र में भी आलिम साहब के उस तञ्ज का जवाब दिया और यह सिद्ध कर दिया कि इल्मिय्त में पठान किसी से कम नहीं है मगर अवाम के सामने आमतौर से बोल चाल की भाषा का ही प्रयोग उचित मानते हैं । मिठाई न खाने से यह भी सिद्ध कर दिया कि घरों में खुद खाना तैयार करने की कितनी अहमियत है और सात्विक दृष्टि से पठानों की संस्कृति कितनी उच्च है ।
  • इसके बाद हज़रत शाह साहब खुशी में गर्क ज़नाब खलीफा जी साहब की खिदमत में हाजिर हुए और सलाम पेश किया । ज़नाब खलीफा जी साहब ने दुआ देकर आपको सीने से चिपटा लिया और शाबाशी देते हुए फ़रमाया, “बेटे तुमने आलिम साहब के सवालों का सही सही जवाब दिया और तुमने लाभ आलिफ (ला) के उर्दू हरूफ में शामिल किये जाने का जो सबब पूछा, निहायत माकूल था, जिसका आलिम साहब कोई जवाब न दे सके । मुझे तुम्हारे इस सवाल से बेहद खुशी हुई ।” इस पर हज़रत शाह ने ज़नाब खलीफा जी साहब से पूछा कि उन्हें इन बातों का इल्म कैसे हुआ । ज़नाब खलीफा जी साहब ने कहा 'बेटे मैं बराबर तुम्हारे साथ ही तो था ।''
  • आप बचपन से ही बड़े ज़हीन थे, ज़नाब खलीफा जी साहब की बतायी हुई बातों को एक ही बार में याद कर लिया करते थे । उर्दू, फारसी और अरबी में पूर्ण पारंगत हो जाने के बाद वर्नाक्यूलर मिडिल स्कूल में प्रवेश लिया । वहां की फाइनल परीक्षा में आप प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए और चार विषयों में विशेष योग्यता प्राप्त की । इसके पश्चात नार्मल परीक्षा में बैठे । इस परीक्षा की तैयारी मैं ज़नाब किबला मौलाना फज़्ल अहमद खां के छोटे भाई ज़नाब विलायत हुसैन खां आपके हम सबक थे । यही ज़नाब मौलाना फज़्ल अहमद खां साहब आपके पीर भाई व रहनुमा थे और बाद में ज़नाब खलीफा जी साहब के परदा कर जाने पर उन्होंने ही आपको इजाज़त व खिलाफत अता की थी । इम्तहान शुरू होने के पहले ही दिन जब दोनों साथ-साथ जा रहे थे कि रास्ते में ज़नाब विलायत हुसैन साहब को कै होने लगी । हज़रत शाह साहब ने उन की बड़ी इम्दाद की और जो भी उपचार मुमकिन थे सभी किये । इम्तहान की देर होती देखकर ज़नाब हुसैन साहब ने आपसे जाने को कहा मगर हज़रत शाह साहब ने जवाब दिया, ''ऐसा कैसे हो सकता है कि आपको इस हालत में छोड़ कर मैं इम्तहान में शामिल हो जाऊँ ।'' खुदा का रहम कि थोड़ी देर बाद आराम होने पर दोनों साहबान साथ साथ इम्तहान में शामिल हुए ।
  • जब इस इम्तहान का नतीजा निकला, हज़रत शाह प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए और तमाम सूबे में उनका पहला नंबर था । तत्कालीन माननीय गवर्नर ने इतनी छोटी उम्र में आपका नाम प्रथम स्थान में पढ़ कर आपसे मिलने की ख्वाहिश जाहिर की । हज़रत शाह साहब गये और अपने तरीके का आदाब पेश किया । माननीय गवर्नर ने आदाब कबूल करने के बाद आपसे सवाल किये । पहला सवाल - ''अगर तुम्हारे दर्जे में 40 तुलबा हों और तुम्हें सिर्फ एक को पढ़ाना है 39 को नहीं, तो तुम क्या करोगे ?'' हज़रत शाह साहब से माकूल जवाब पा कर गवर्नर साहब ने दुबारा पूछा ''अगर दरजे में 40 लड़के हों 39 को पढ़ाना है एक को नहीं तो क्या करोगे ?'' इसका भी आपने सन्तोषप्रद उत्तर दिया । इसके बाद माननीय गवर्नर ने आदेश दिया कि आप मैनपुरी के जिला मजिस्ट्रेट से मिलें ।
  • हज़रत शाह साहब का जीविकोपार्जन
  • माननीय गवर्नर के आदेशानुसार हज़रत शाह साहब जिला मजिस्ट्रेट मैनपुरी से मिले । जिला मजिस्ट्रेट ने आपको बताया 'तुम्हारे विषय में मुझे हिदायत मिल चुकी है, मैं तुम्हें मिडिल स्कूल का मुदर्रिस (अध्यापक) नियुक्त करता हूँ । तुम शिकोहाबाद जाकर मिडिल स्कूल में अध्यापक का चार्ज सम्भाल लो । और यह भी पूछा कि वहाँ गदर है क्या तुम काम कर लोगे ? हज़रत शाह साहब ने जवाब दिया, ''अगर आप मदद करेंगे तो जरूर कर लूंगा ।'' जिला मजिस्ट्रेट ने कहा 'क्या तुम कतल कर दोगे ?' आपने फ़रमाया ''कतल तो नहीं, मगर कतल अमद जरूर होगा'' । इस पर जिला मजिस्ट्रेट ने मदद करने का वादा किया ।
  • इसके बाद हज़रत शाह साहब ने शिकोहाबाद जाकर डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के मिडिल स्कूल में अध्यापक के पद का चार्ज लिया । सबसे पहले आपने वहाँ के सभी मुदर्रिसान से मीटिंग की और उनसे वहाँ के हालात के बारे में जानकारी की । मालूम हुआ कि उस स्कूल में एक गिरोह बन्द व गुण्डा किस्म का लड़का है । वह रोजाना 500 दंड और 1000 बैठकें करता है । बस्ती के लोग उससे थर्राते हैं । उसने हर हेडमास्टर की बेइज्जती की है । कोई मास्टर यहाँ रहना पसन्द नहीं करता बल्कि इस्तीफा देना बेहतर समझता है । उस लड़के को आपको पहचनवा भी दिया गया ।
  • जिस कक्षा का वह लड़का छात्र था आपको उसी कक्षा का अध्यापन कार्य सौंपा गया । पहले दिन हज़रत शाह रजिस्टर के काम में मशगूल रहे । दूसरे दिन भी आप रजिस्टर लिए बैठे रहे जैसे उसमें कुछ काम करते रहे और वह दिन भी व्यतीत हो गया । तीसरे दिन भी क़सदन रजिस्टर पर ही निगाह गड़ाये रहे और कलम से कुछ लिखने का बहाना करते रहे । वह लड़का अपने दांव की तलाश में था और आप भी उसी का इन्तजार कर रहे थे । उस दिन वह लड़का अपनी जगह से उठ कर आपके पास पेशाब कर आने की इजाज़त माँगने आया । आपने रजिस्टर पर आँखें गड़ाये ''नहीं'' कह दिया । मगर वह लड़का अपनी जगह नहीं गया और फिर पूछा ''पेशाब कर आऊँ ?'' हज़रत ने फिर ''नहीं'' कह दिया । तीसरी बार उस लड़के ने पुनः पूछा ''पेशाब कर आऊँ'' । इस बार आप गुस्से में तेजी से उठे । कलम व रजिस्टर अलग फेंका कुर्सी भी पीछे की और धड़ाम से गिरी । बिना कुछ समय खोये उस लड़के के एक तमाचा जड़ दिया और ऐसा पेंच मारा कि वह लड़का चारों खाने चित्त गिर गया । अब आप उसकी छाती पर चढ़ बैठे और अपना कायमगंजी चाकू निकाल लिया । उसकी गरदन पर चाकू रखते हुये बुलन्द आवाज में बोले ''हरामजादे, तेरी कैसे जुर्रत हुई कि मेरे बार बार मना करने पर भी अपनी जगह पर वापस नहीं गया । बदमाश कहीं का, बोल तेरी सब आँतें निकाल लूँ । ''लड़का बेहद घबड़ा गया और गिड़गिड़ा कर माफी माँगने लगा । जब उस लड़के ने दुबारा कभी ऐसा न करने का वादा किया तभी आपने उसे छोड़ा और कहा ''जा बैठ अपनी जगह पर ।''
  • उसी दिन पूरे क़स्बे में यह खबर आग की तरह फैल गई । दूसरे दिन क़स्बे के कई बाअसर लोग एक मोटर पर बैठ कर मैनपुरी जिला मजिस्ट्रेट के यहाँ गये और वाकया सुनाया । बाद में यह भी अर्ज किया कि उन्होंने एक कातिल और गुण्डे को अध्यापक नियुक्त कर भेज दिया है, उसे वहाँ से फौरन हटा दीजिए । जिला मजिस्ट्रेट ने सारी बातें सुनी और अन्दर चले गये ।
  • थोड़ी ही देर में पुलिस की दो लारियाँ भरकर आ गईं और साथ ही एस॰ पी॰ साहब भी आ पहुँचे । एस॰ पी॰ साहब को लेकर जिला मजिस्ट्रेट अन्दर चले गये और पुनः निकल कर आये । पुलिस को हुक्म दिया कि शिकोहाबाद से आये सभी लोगों को हथकड़ी लगाकर जेल भेज दो । वे लोग बड़े भयभीत हुए और गिड़गिड़ाने लगे कि ऐसा न किया जाय । इस पर जिला मजिस्ट्रेट ने डाँटते हुए कहा ''तुम्हारे यहाँ इतने दिनों से गदर मचा है कि कोई मास्टर टिकने नहीं पाता, न कोई पढ़ाई होती है । इस बात को लेकर तुम लोग कभी नहीं आये । आज जब मैंने ऐसा अध्यापक भेजा कि वहाँ के माहौल को बदले तो उसकी शिकायत करने चले आये ।'' सब लोगों ने इस बात को महसूस किया और आइंदा मदद करने का वादा किया ।
  • इस प्रकार हज़रत शाह साहब ने मुलाजमत की शुरुआत की । इसके बाद तबादले होते रहे और आपको मुख्तलिफ जगहों में रहने का मौका मिला । जहाँ भी आप रहे अपनी इल्मियत और तालीम के लिए मशहूर रहे । आप न केवल अपने विद्यार्थियों के प्रिय रहे वरन् बस्ती के लोग भी आदर की दृष्टि से देखते थे । आप अपने अख़लाक से सभी का दिल जीत लेते थे आपके सामने किसी को गलत काम करने या गलत बात कहने की हिम्मत न होती थी ।
  • आप अपने विद्यार्थियों की सब प्रकार से मदद करते थे । तालीम के साथ साथ लड़कों को मुहज्जिब और नेक इन्सान बनाने का ख्याल रखते थे । उनका कहना था ''बाअदब बानसीब, बेअदब बेनसीब ।''
  • उस समय डिस्ट्रिक्ट बोर्ड का हर तहसील में एक मिडिल स्कूल होता था । जिसे तहसीली स्कूल या टाउन स्कूल भी कहते थे । स्कूल की बिल्डिंग के पास बोर्डिंग हाउस तथा हेडमास्टर का क्वार्टर रहता था । पदोन्नति के पश्चात् हेडमास्टर हो जाने पर कई स्थानों पर आप भी उसी क्वार्टर में रहते और बोर्डिंग के लड़कों तथा बस्ती से आ जाने वाले अन्य बालकों को रात में पढ़ाया करते थे । एक बार रात में ऐसे ही किसी स्कूल के बोर्डिंग हाउस के निकट कुछ बदमाश इकट्ठे हुए जो आपस में बातें कर रहे थे । लड़के बहुत डर गये थे । एक लड़के ने हज़रत शाह साहब को यह सब हाल बताया । आपने लड़कों को निडर रहने की ताकीद की और कहा कि आइन्दा बदमाशों के वहाँ इकट्ठा होने की सूचना आपको दें । लिहाज़ा दूसरी रात आपको इत्तिला दी गई । आप तुरन्त लाठी लेकर उठे और बदमाशों को ललकारा और साथ ही चहार दीवारी के बाहर कूद गये । आपको आते देखकर बदमाश भाग खड़े हुए । और उधर से आवाज आई, “मैं जानता हूँ तुम बिन्नौट जानते हो ?” जब 35-40 आदमी लेकर आऊँगा तब तुम क्या कर लोगे ?” । आपने जवाब दिया । “बेशक तुम लोग 40 आदमी और साथ में 30 चारपाई भी लेकर आना ।”
  • हेडमास्टर के पद से आपकी तरक्की हुई और सब डिप्टी इन्सपेक्टर के पद पर आसीन हुए । आपको स्कूलों का मुआयना करने जाना पड़ता था । गर्मी में आपको अधिक तकलीफ होती थी अतः आप एक स्कूल से दूसरे स्कूल जाने के लिए ज्यादातर रात में सफर करते थे । दूसरी सवारी उपलब्ध न होने पर एक बार आप ऊँट गाड़ी से एक स्कूल में दूसरे स्कूल जा रहे थे । सुनसान जगह पर लुटेरों ने जबरन आपकी गाड़ी रोकी । चालक से गाड़ी रुकने का सबब दरयाफ़्त किया । मालूम हुआ कि लुटेरों ने गाड़ी रुकवाई है । यह जान कर आप लाठी लेकर कूद पड़े और उन बदमाशों से, जो संख्या में आठ थे, कहा ''भाई जो कुछ मेरे पास है वह सब निकाल कर रक्खे देता हूँ और तुम लोगों के पास जो हो वह भी निकाल कर रख दो । इसके बाद पूरे माल को जो उठा सके उठा ले ।'' इस शर्त पर वे लोग राजी हो गये तथा वैसा ही किया । उन सबों ने आप पर वार करना शुरू किया, आप अकेले ही सब का सामना करते थे । थोड़ी देर में वे आठों लोग घायल होकर भाग खड़े हुए और आपके कोई चोट नहीं आई । फिर आपने सब को बड़े प्यार से बुलाया और कहा कि अपने अपने पैसे उठा लो, साथ ही मेरे पैसे भी आपस में तकसीम कर लो, मगर यह पेशा छोड़ दो । आपके आग्रह पर सबने तौबा किया कि अब ऐसा न करेंगे । आपने भी सबके सामने उनके लिए हक से दुआ माँगी । कुछ अरसे के बाद पता चला कि वे सभी लुटेरे नेक इन्सान बन गये ।
  • सब का हित चाहने वाला इन्सान निर्भय हो जाता है । उसे अपने पराये की भावना नहीं होती । वह सभी के कल्याण की भावना से प्रेरित होकर कार्य करता है । आपके अदम्य साहस की अनेक दास्तानें हैं । आपका गोरा बदन और आकर्षक व्यक्तित्व था । देखने में दुबले पतले किन्तु बलिष्ठ, तेज धावक, बिन्नौट कला में निष्णात, फुरतीले एवं खेलकूद में अव्वल । रहमदिल मगर अनुशासन में कठोर । सफेद कुर्ता और पल्लीदार टोपी पहनते थे, कभी कभी साफ़ा भी बाँधते थे । आत्मीयता से भरा हुआ 'बेटे' सम्बोधन से मनुष्य मात्र उनकी ओर खिंचता चला आता था । फारसी व अरबी भाषा के प्रकाण्ड विद्वान थे । कुरानशरीफ़ आपको कण्ठाग्र थी । दूसरे धर्मों की ओर भी आपका दृष्टिकोण बड़ा उदार था । आप हिन्दुओं के त्योहार बड़े चाव में मनाते थे । विशेषकर जन्माष्टमी का उत्सव उन्हें वहुत पसन्द था । चरण छूने से आप खुश होते थे ।
  • शुरू से ही आप इन्साफ पसन्द थे । आप में पक्षपात छू भी नहीं गया था । आपके बड़े पोते ज़नाब अब्दुल जलील खाँ साहब और एक पं॰ बजरंग प्रसाद दुबे के बीच जमीन सम्बन्धी एक मुकदमा चल रहा था । आपने पं॰ बजरंग प्रसाद दुबे को उनकी इल्तजा करने पर दुआ की और वह मुक़दमे में कामयाब हो गये । इसी तरह जमीन का एक और विवाद एक अलाउद्दीन साहब से चल रहा था उसमें भी आपने अलाउद्दीन की दुआ की और ज़नाब अब्दुल जलील खाँ साहब हार गये । इस पर जनाव जलील खाँ साहब ने आपसे शिकायत की कि आपने उस अलाउद्दीन के हक में दुआ देकर उन्हें हरवा दिया । आपने फ़रमाया कि ''तुम मेरे पोते हो इसलिए चाहते हो तुम्हारी इम्दाद करें । मैं अदल पसन्द आदमी हूँ । मेरे लिए अपना पराया कुछ नहीं है'' ।
  • आपकी औलाद में एक साहबज़ादी और एक साहबज़ादा था । अवकाश ग्रहण करने के बाद आपने मुस्तक़िल तौर से भौगांव में अपनी सकूनत अख्तियार की । अपने फण्ड से मिली रकम से आपने मकान खरीदा जो अब आपके पसमान्दगान बरत रहे हैं ।

    आध्यात्मिक जीवन
  • ज़नाब खलीफ़ा अहमद अली खाँ साहब (रहम॰) आपके न केवल सांसारिक विद्या के गुरु थे बल्कि रूहानी तालीम के भी पीर मुर्शिद थे । सांसारिक विद्या ग्रहण करने के दौरान ही ज़नाब खलीफा जी साहब ने अपनी रूहानी तालीम भी शुरु कर दी थी और आपको अपने जीवन काल में ही आध्यात्मिक क्षेत्र की पराकाष्ठा पर पहुंचा दिया था । किन्तु बाहरी तौर से खिलाफत व इजाज़त अता नहीं की थी ।
  • ज़नाब खलीफा जी साहब खिलाफत व इजाज़त की बात तो दूर, आसानी से बैअत भी न करते थे । उनसे अक़ीदत रखने वाले एक सज्जन ने ज़नाब खलीफा जी साहब से हरचन्द बैअत करने की दरख्वास्त की, मगर उन्होंने बैअत करना मुनासिब नहीं ख्याल किया । हुस्ने इत्तिफ़ाक़ वह शख्स बिना बैअत हुए ही इस दुनियाँ से कूच कर गया । उसकी मृत्यु के बाद ज़नाब खलीफा जी साहब को बड़ा अफसोस हुआ और उस शख्स की मजार पर तशरीफ ले गये । उसको बैअत किया और अपनी तवज्जोह से सरशार कर वली बना दिया हज़रत शाह साहब अपने पीर की इस घटना का जिक्र बड़े फ़ख्र से किया करते थे और फ़रमाया करते थे कि जो चाहे उन वली साहब को देख आये ।
  • आपकी मुलाज़मत के जमाने में इसी तरह एक दरोगा जी का नौजवान लड़का आपकी सोहबत में बैठा करता था और उसने अनेक बार बैअत करने की दरख्वास्त की । हज़रत शाह साहब उसको बड़े प्यार से समझा दिया करते थे । ''बेटे मुझे इजाज़त नहीं है ।'' यह जवाब सुन कर उस लड़के ने कहा ''जैसे आपके पीर ज़नाब खलीफा जी साहब ने एक शख्स को बाद मैयत बैअत किया था और वली बनाया था, उसी तरह मालूम पड़ता है आप मेरे मरने के बाद बैअत करेंगे तथा सद्गति को प्राप्त करायेंगे'' । आपने उससे फ़रमाया ''बेटे ऐसा न कहो, तुम अभी लड़के हो, अल्लाह पाक तुम्हारी उम्र दराज करे'' । अल्लाह की ऐसी मरज़ी कि कुछ दिनों बाद उस लड़के का इन्तकाल हो गया । उसके बाद हज़रत शाह साहब को ख्याल गालिब हुआ ''कि मेरे पीर मुर्शिद में तो यह तौफीक थी कि अपने श्रद्धालु को मरने के बाद बैअत कर वली बना दिया और मैं इस लायक नहीं हू । क्या करुँ ? इस लड़के का कैसे कल्याण हो । इस ख्याल के गल्बे ने हज़रत शाह साहब को, बेचैन कर दिया । और आप तीन दिन रात अल्लाह पाक से गिड़गिड़ाते रहे और दुआ माँगते रहे कि इस लड़के का कल्याण हो । आपके पीर भाई ज़नाब हुजूर महाराज (मौलाना फज्ल अहमद खाँ रायपुरी) आपसे उम्र में बहुत बड़े थे किन्तु दोनों भाइयों में अपार प्रेम था । अतः आपने उनकी खिदमत में जाने का फैसला किया ।
  • उधर ज़नाब खलीफा जी साहब ने उसी रात को ज़नाब हुजूर साहब को ख्वाब में यह हिदायत फ़रमायी, ''अब्दुल ग़नी खाँ कल तुम्हारे पास पहुंच रहे हैं । उनको समझा कर तसल्ली देना । वह बहुत बेचैन हैं । वह दरोगा का लड़का मरने के बाद उनसे बैअत हो गया है और रूहानियत के आला मदरिज पर पहुंच गया है । अब उसके बारे में वह कतई फिक्र न करे । तुम उन्हें इसी वक्त इजाज़त ताम्मा अता करके वापस करना ।''
  • हज़रत शाह साहब अपने फ़ैसले के मुताबिक दूसरे दिन फरुखाबाद शहर की उस मस्जिद में, जहाँ ज़नाब हुजूर साहब उन दिनों वहीं रह रहे थे, पहुंच गये । पहुँचने के बाद आपके पीर भाई ज़नाब हुजूर साहब ने पहली बात आपसे यही कही कि ''भाई ग़नी अद्दा (प्यार व आदर में वह इसी सम्बोधन से पुकारते थे) आप उस दरोगा के लड़के के बारे में कतई फिक्र न करे । वह लड़का आपसे बैअत होकर आला तरीन मुकाम पर नशिस्त है ।
  • हज़रत शाह साहब ने आपसे यह सवाल किया कि उन्हें उस दरोगा के लड़के की बाबत और बेचैनी का कैसे इल्म हुआ । ज़नाब हुजूर साहब ने जवाब में यह फ़रमाया ''भाई ग़नी अद्दा पिछली रात ही ज़नाब खलीफा जी साहब ने ख्वाब में मुझे यह हिदायत दी है कि आप आ रहे हैं और ताकीद की है कि दरोगा के लड़के के सम्बन्ध में आपके ख्याल को बिलकुल निकाल दे । साथ ही इसी मौक़े पर आपको इजाज़त ताम्मा देने का निर्देश दिया है । अतः उसी दिन ज़नाब मौलाना फज्ल अहमद खाँ सा॰ ने हज़रत शाह साहब अब्दुल ग़नी खाँ को इजाज़त व खिलाफत अता की ।
  • उसी रात दोनों पीर भाई साथ साथ मराक़बे में बैठे । फिर सोने के लिए लेट गये । रात में करीब 1 बजे हज़रत शाह साहब को बहुत तेज भूख का अहसास हुआ । आप फरुखाबाद बाजार की ओर खाने की तलाश में निकल गये । शहर की सभी दुकाने बन्द थी । आपको कुछ दूर जाकर शहर के पक्के पुल नामक मुहल्ले में एक भुरजी भाड़ जलाये हुए मिला जो चने भून भून कर ढेर लगा रहा था । आपने एक रुपया और रुमाल बढ़ा कर चने माँगे । भुरजी ने चने देने से इनकार कर दिया । मजबूरन आप पुनः आकर लेट गये । हस्ब मामूल दूसरे दिन सुबह अपनी दिनचर्या से फारिग होकर दोनों साहबान खाना खाने बैठे । इस समय तक हज़रत शाह साहब की रात वाली भूख समाप्त हो चुकी थी । लिहाज़ा अपनी रोजमर्रा की भूख के अनुसार भोजन किया । ज़नाब हुजूर साहब ने आपसे और खाने का इसरार किया और कहा कि रात में तो आप खाने के लिए तमाम बाजार में चक्कर लगाते फिरे । आगे फिर फ़रमाया कि वह भुरजी अगर आपको अपने सब चने दे देता तो भी आपके भूख की ख्वाहिश ज्यों की त्यों बनी रहती । वह भूख थी ही इस प्रकार की ।

    आपके मुरीदैन
  • इसके बाद आपने बहुत ही तालिबों को इस ओर प्रवृत्त किया । आपके मुरीदों की संख्या अत्यधिक थी । उनमें हिन्दू मुरीद ज्यादा तादाद में थे । आपके इकलौते साहबज़ादे भी आपके ही खलीफा अरसद थे । महात्मा रघुबर दयाल जी (चच्चा जी महाराज) के तीन पुत्र थे, तीनों पुत्र आपसे ही बैअत थे । ज्येष्ठ पुत्र महात्मा ब्रज मोहन लाल तथा मँझले पुत्र महात्मा राधा मोहन लाल को आपने ही इजाज़त व खिलाफत अता की थी । महात्मा जगमोहन लाल को, जो महात्मा रामचन्द्र जी महाराज (लाला जी साहब) के एक मात्र पुत्र थे, आपने ही इजाज़त व ख़िलाफ़त अता की थी ।
  • महात्मा ब्रज मोहन लाल जी को इजाज़त देने के वास्ते आपके पीर भाई किबला हुजूर साहब ने ख्वाब में निर्देश दिया था और आपने पूज्यपाद लाला जी साहब को खत लिख कर तलब किया था । इजाज़त देने के वक्त आप घर से उस टोपी को पहन कर निकले जो आपको बर वक्त इजाज़त आपके पीर भाई ने अता की थी । जब आप बाहर आकर बैठ गये तो महात्मा ब्रज मोहन लाल से, जिन्हें प्यार में 'बिरजू' कहते थे, अपनी ओर देखने को कहा । ज्यों ही उनकी नजर हज़रत शाह साहब की नजर से मिली त्यों ही उनकी चीख निकल गयी और ग़शी तारी हो गई । आँखें खुली की खुली रह गई । हज़रत शाह साहब ने उनके सिर पर लगी टोपी तुरन्त हटा दी और अपने सिर की टोपी उनके सिर पर रख दी । महात्मा ब्रज मोहन लाल जी की इस इञ्जनोवी हालत को देखकर लाला जी साहब को कुछ घबराहट हुई । उसका अनुभव करने पर हज़रत शाह साहब ने अपना रुमाल मुबारक उनके सीने पर रख दिया और ज़नाब लाला जी साहब से कहा, ''आप घबरायें नहीं, यह मरेगा नहीं । आगे चलकर इससे एक आलम मुनव्वर होगा ।'' इसी प्रकार हज़रत शाह साहब अपने साहबज़ादे के लिए अकसर फ़रमाया करते थे - ''रूहानी दुनियाँ को पुरनूर करने के लिए मेरा अकेला 'गफ्फार' ही काफी है ।''


Find out more

Lalaji Maharaj of Fatehgarh

1/2

Mahatma Ram Chandra ji

  •  It happened as Divinity would will, on the Basant Panchami day in the month of Magha in the year 4974 after the beginning of Kali yuga corresponding to the 2nd Feb. 1873 A.D. at Fategarh in the state of UP in India. His father Sri Harbux Rai belonged to a very distinguished family of kayasths. His great grand father was a person of rare genius and his fine qualities and noble attainments won for him, from the Great Moghul emperor unstinted praise and friendship. He was given the title of Chowdhari and a jagir comprising 555 villages. He resided in the town of Bhoomigram in the district of Mainpuri in UP India. The family which got affected by the after effects of the uprising of the Indians in 1857 (called sepoy mutiny by the biased British historians) migrated to Fategarh, U.P. Here he worked as tax superintendent and began to live with his family. But in the changed circumstances his state had been subjected to considerable damage and his assets were just enough to live the old aristocratic life.
  • His wife was a saintly lady. Her heart was full of devotion and she was strongly attracted towards God. She had great regard for saints and served them whenever she had an opportunity. She had a melodious voice and her recitation of Ram Charit Manas thrilled the audience. Charity the principle of a Grhasta was practiced by her to the fullest and no needy person ever left her house without satisfaction. However she had no children. Therefore they had adopted a son.
  • Once a saint came to Farrukhabad and she went to his satsang along with the her husbands' younger brother. The melodious singing of sakhis of Saint Kabir by the saint touched her tender and devotional heart so much that tears welled up and she got into a state of absorption. This was observed by the saint who silently blessed her. Since then the love for God increased in her and she soared into samadhi condition often. One day an Avadhoot called at her door. He sat down and asked for food which was served to him. After partaking of it he asked for a dish of fish. As she was a Vaishnav she found herself unable to provide the same and asked her maid to make some arrangements. The maid brought the fishes from the outer kitchen of the house and the same was served to the Avadhoot. After getting satisfied with his wish, while leaving the house he asked "what ails you?" Though she did not reply the servant maid said the lady has no children. After a few moments beaming with brightness, raising his fingers towards heaven said "One... two..." and so he left. Soon after the first son Sri Ramchandra was born on 2nd Feb. 1873 A.D. and another son was born on 17th Oct.1875 who was named Sri Raghubar Dayal.
  • Sri Ramchandra affectionately called Lalaji Saheb from his childhood used to recite Ram Charit Manas for his mother in uncommonly sweet and melodious voice inherited by him from her. While a child, he inculcated in himself a deep love for music and had an amazing aptitude for producing an exact imitation of the intonation etc., of any song which he had heard only once. His mothers' spiritual life had a great effect on him and he had at that age developing a strong love for Reality.
  • His mother breathed her last when he was only seven years of age and he was brought up by another woman who loved him very dearly. Lalaji had deep regard for her all her life. Once she wanted to give him all her property to him but he firmly refused to accept it and on his own part gave her presents and help throughout her life.
  • He was educated in Urdu, Persian, and Arabic by private tutor and learnt Hindi from his mother. Later he studied at the Mission School at Farukhabad and passed the English Middle Examination. While at school he lived in a very small room. During those days he was assisted by a muslim teacher in his studies and was influenced by him. One day while playing the game of tops with other boys, the whirling motion of the top reminded him of the work for which was born and since then he took up his spiritual preparation and work. It is the will of God that he attained perfection within a brief span of seven months. While only a student his entire system was transformed into a celestial inner light and his consciousness ascended and transcended all the known stages and reaches to reach the state of statelessness.
  • He was married to a noble lady of a respectable family. His father expired soon after his marriage. At this period Raja of Mainpuri had brought action against his ancestral property and he lost all the property. His brother, who was adopted by his father also expired around this time. Circumstances forced him to move into a much smaller house and lose all the comforts which he had till then.
  • At that time one of the associates of his father who was then Collector, Farrukhabad learnt of these tragic incidents and invited him to join as Paid apprentice in his office at rupees ten per month.
  • Sri Lalaji grew up into a perfect specimen of graceful manhood with perfect build and average height. His outward gracefulness is just an expression of the inner harmony he enjoyed. He had a wheatish complexion. His broad and high forehead was indicative of the vast store of intellect which he used not as one used a lamp for his own seeing but like a light house to guide those on the sea. Most remarkable were his eyes which were like two bright stars which appeared to see through everyone and every thing. Sleep and wakefulness seemed to lie intermingled and in repose in those eyes which caused an awakening in a human being with a single movement of their lids. They were homes of silent prayer or sweet, silent rhetoric of persuading eyes. He was of amiable feelings and his countenance a beauty of the highest order. His hair was silken to the touch. One front tooth was comparatively larger. His ears were of medium size. He sported a small beautiful beard and a mustache. Sri Lalaji did not like luxury of any kind. The clothes he wore were simple and clean. Kurtas, shirts, pyjamas and dhotis were his usual wear. Sometimes he wore a waistcoat over his kurta and a buttoned up coat reaching down to his knees. He wore colored cap and wrapped a shawl around his shoulders in the winter. He wore no ornaments. Lalaji saheb kept his eyes mostly down. He did not laugh aloud but simply smiled. His smile announced goodness and sweetness, and brightened others with its spiritual vivacity. He was a great lover of humanity and often used things given to him with love inspite of his own dislike for those things. He hated flattery and though he loved his followers with their faults he never failed to enforce stern discipline with love. 
  • Frugal in his food habits he lived an unostentatious life. He did not take break fast. Bread, pulses, and chatni was his morning meal, while in the evening he took bread, vegetables and pickles. He did not take meat, ice or tea. Kachauri and arvi were his favourite dishes.
  • He always had a tight program. He never slept after the sun-rise. After attending to natural calls he put on clean clothes and devoted himself to spiritual sadhana imparting training to others. After that he went to office. On return from office he again imparted spiritual training. He took early dinner and went for walk around 8 P M. After that he busied himself with training the aspirants and went to bed by 10 P M. But without going to sleep he used to attend to the aspirants till 2 a.m. in the morning. He always slept in a separate room but also shared the same with satsanghis. Sometimes he took his guests for walk along the banks of Ganga and also to fairs for a change.
  • By nature he was always calm but was easily moved by the pains and pleasures of others. Possessed of a melodious voice, he was an adept at employing sweet language for communicating his thoughts and captivating the hearts of his audience. Rarely could he be angered. Not given to superfluous talk, he spoke as little as possible. However in answering questions put to him he dealt with them exhaustively and seldom was the inquirer left with doubt on any matter. In case there was some one who could not understand him, he brought about the desired state in that person who acquired an experience and knowledge of the subject under discussion.
  • With a view to train his fellow brothers and disciples he performed the duties of a householder exceedingly well. He respected his elders and saluted them, exercised humility with those of his own age without resorting to humiliation, and loved those who were younger than himself. He did not smoke. He did not like playing cards or chausar. Sometimes he sang and played on the harmonium.
  • Sri Lalaji was very much against rituals and favoured widow marriage as well as female education. One of his wishes was that the children of satsanghis marry amongst themselves; but early or late marriages did not find favour with him. His servants were like members of his own family, and were paid on due dates. According to him, servants were helpers and should be engaged to do work which their masters could not generally do themselves. Breaking of promises, spending more money on ceremonial occasions than one could afford to, were strongly disliked by him. Backbiters got no sympathy from him. On the contrary, they were strongly reprimanded - "You have not been appointed spies," he would say, and bring them to the right path at once. Sri Lalaji was transferred from Kaimganj to Fatehgarh in the year 1908. He began, for most of the time, to live in seclusion and to remain lost in God. There was an old servant who did all the house work. Lalaji's personality, mode of living and general behavior impressed his neighbors greatly and they loved him dearly and respected greatly. In the beginning, some teachers came to him and were transformed in no time. Finding a great change in themselves, those teachers told some students about the change wrought in their personalities without their own effort and this brought some students to Lalaji, and they also got transformed likewise. Learning of this amazing and novel method other people began to come, but Lalaji did not start mass or, regular satsangh at that time. He used to transmit, cleanse and transform them saying that his work was that of a sweeper or washer man, Who ever came to him would be cleansed through and through. After his manas was cleaned he would get a guide according to his samskaras. His motto was, no undesirable should be initiated but if one had come, he must not go back. He greatly hated to be called a guru. About imparting training, he used to say that he was only a peon to his officer. He had simply to carry out the orders of Divinity without thinking about the success or failure of his efforts.
  • Sri Lalaji established regular satsangh from the year 1914 and started training his followers. He did not put off his work even during his illness. After his retirement in 1929 he began to give all his time to his noble work. He spent two to three hours every day on dictating books, articles and letters to satsanghis.
  • He was a great scholar of Urdu, Persian and Arabic, and had a sound knowledge of Hindi and Sanskrit. He had disclosed hitherto unknown secrets of the Vedas, illuminatingly Interpreting important richas and bring Reality to light. Controversial phrases and words commonly used in scripture, but generally misunderstood, were explained in such a simple way and in such easily understandable works coined by him that real knowledge became common property.
  • He taught, " Never offer advice unless invited, otherwise it is likely to yield bad results. If you find any fault with anybody, pray for his freedom from it." He himself never directly asked anyone to give up any bad habit. All such bad habits and afflictions left that person in no time after he had been with him. Commenting on this method he used to say, " If you sit by a fire, you feel warm; if you sit by ice, you feel cold. Why then will you not get transformed if you sit with a person who is perfect in discipline and etiquette?" He never talked about anyone's faults. In case it became necessary to discuss such a subject, he went mum.
  • He always advised reduction of wants. He would say " Do not purchase a new thing if you can manage to carry on with your old belongings." He was not against earning money by honest means, but insisted on spending it on others. Use of intoxicants being given to adultery were strictly prohibited by him. He would often direct his followers not believe their manas in this regard. Accordingly to him, the slave of woman and greedy person could never perform acts of paramarth. To him, show was disqualification. Stating a bare truth was always good in his opinion. He was very firm in his conviction that the real discipline and etiquette were simply that the tongue should utter only that which was in ones' heart. The inner and outer condition of an abhyasi had to be same.
  • Display of miracles was extremely disliked by him. If someone attained siddhis in his sadhana, he at once removed that state. Ego was likewise never allowed to grow. He advocated that the aspirants should always remain away from siddhis until they reach their goal and the discipline is perfected. When the sadhak reaches his goal, all his actions automatically become miracles. He held the opinion that the great miracle of a saint was to transform an animal man into a perfect man. There is no denying of his full command over siddhis, but he never used those powers.
  • Sri Lalaji considered spiritual perfection to be based on three things. 1) love for the Master 2) satsangh with the Master and 3) obedience to the Master.
  • He was against idol worship. Though he allowed his photo to be kept by his followers, he never allowed them to worship it. Self praise was so much disliked by him that he did not allow people touch his feet in order to pay respects to him. Excess of tapa and japa was not liked by him. He considered love to be the greatest tapas. He preferred the middle way and regarded the meditation on the heart as the real sadhana. He attached great importance to prayer, but it was not to be for material gain. He himself constantly prayed for the soul of this world. Sri Lalaji was very particular regarding conduct. He announced in unambiguous terms that realisation of self was not possible without adhering to the standard moral code of conduct. He even forbade association and satsangh with immoral persons. He insisted that company should be kept only with those persons whose hearts are brimming with love for God and with those who could influence others with it.
  • He considered three things necessary for a saint 1) permanent bodily ailment 2) financial stringency and 3) nindak - one found fault with.
  • The real sadhana is to balance the mind.
  • Eat less and earn a honest living. Without taking honestly earned food, spiritual experiences often go wrong. Once he wrote - " it is good to be put to worries. The home is the training centre for submission and endurance, etc. It is the greatest form of penance and sacrifice." At another place he wrote "As for afflictions and worries, I too had mine which might perhaps be shocking to another. Often I had nothing for my meals. I had a number of children and dependents to support. Besides, at times I had to help others too, which I could not avoid. The entire responsibility was upon me alone and I had to manage all that and provide for all requirements. I may also tell you that sometimes there was only one quilt, and that too with mutilated padding, to cover the entire family. But I took it as a display of misfortune only which passed away with time. I felt that all this was absolutely of no importance to me as compared to Reality which was predominant in all my being. So I ever smiled on them thinking them to be the very way of liberation."
  • He always advised to cleanse our manas ( mind ) with practice and sadhana and then read, otherwise Reality will be lost upon you. He advised to avoid becoming a Master and serve as a servant should. He used to say that "God has hidden himself inside our hearts and exposed us. Hide yourselves and expose God!" This is the real sadhana.
  • Sri Lalaji had all the qualities of a truly great and perfect man being, as he is, next to God. According to Swami Vivekananda "Man is man so long as he is struggling to rise above nature, and the nature is both internal and external. It is good and very grand to conquer external nature, but grander still it is to conquer internal nature. It is good and grand to know the laws that govern stars and planets, but it is infinitely grander and better to know the laws that govern the passions, the feelings and the will of mankind."
  • This Great Master who was a prodigy of Nature, the Ultimate Reality, brought back to humanity the long forgotten art of transmission of the Upanishadic pranasya pranah and worked out a novel method of spiritual training which completely relieved the practicant of almost all of his responsibilities. With him dawned the new era of yogic training through transmission of which he was the Master. He could bring a man to perfection simply at a glance. It was he who made it possible that a man could attain perfection in one life - rather a part of it - leading just a normal family life. He simplified the method of spiritual training to a great extent and adjusted it to suit the requirements of time.
  • Mahatma Ram Chandraji was the first giaour saint of the Naqshbandi Order. His father Chaudhary Harbaksh Rai was one of the descendants of a highly respected Kayasth family of District Mainpuri. Emperor Akbar had gifted Babu Vrindavan, one of the renowned ancestors of this family, with the title ‘Chowdhary’ and 555 villages amongst many other things. Babu Vrindavan named one of these villages as ‘Bhoom-gram’ and started living there. With the passage of time this village developed into a small town and its name got distorted to ‘Bhogaon.’
  • Ch. Harbaksh Rai initially lived in Bhogaon but later after the mutiny in 1857 moved to Farukhabad. He was appointed as Superintendent-Octroi. His wife was a very pious and religious lady, who spent most of her time in prayers etc. She was fond of helping the needy, poor and orphan girls and spent lot of money in arranging their marriages. No beggar ever returned empty handed from her door. She was gifted with a good voice and she used to sing well. When she used to recite the ‘Ramayana’ people used to forget their surroundings and used to get absorbed in the divine thoughts. Often she used to visit saints and sometimes they also used to stay at Ch. Sahab’s house.


Find out more

Mahatma Raghuvar Dayal ji

1/2

Mahatma Raghuvar Dayal ji

  • आप परम सन्त सद्गुरु श्रीमान लाला जी महाराज के छोटे भाई थे । आपका जन्म 7 अक्टूबर सर 1875 को हुआ । आपका लालन-पालन भी श्रीमान लालाजी महाराज के साथ साथ अपने पिता श्रीमान हरबंस राय चौधरी साहब की ही देख रेख में हुआ । पिता के स्वर्गवास के पश्चात् आपने बड़े भ्राता श्रीमान लालाजी महाराज को ही अपने पिता के स्थान पर मान कर उनकी आज्ञा तथा इच्छा का अनुसरण इस प्रकार किया कि जिसका उदाहरण इस युग में मिलना कठिन ही नहीं असम्भव है । हाँ यदि हम भगवान राम के प्रति भक्त-श्रेष्ठ, भरत जी का उदाहरण प्रस्तुत करें तो बहुत कुछ ठीक बैठ सकता है ।
  • बचपन में आपका लालन-पालन भी बड़े ठाट बाट से हुआ परन्तु पिता के स्वर्गवास के पश्चात् आपको भी उन्हीं कठिनाइयों का सामना करना पड़ा जिनका हमारे श्रीमान लालाजी महाराज को । परन्तु आपकी यह विशेषता थी कि आप पूर्णरूप से श्रीमान लालाजी महाराज पर आश्रित ही नहीं अपितु समर्पित अर्थात् न्योछावर थे । उर्दू भाषा की उच्च शिक्षा तथा अँग्रेज़ी की थोड़ी शिक्षा प्राप्त करके आपने अपना प्रारम्भिक कौटुम्बिक जीवन असिस्टेन्ट स्टेशन मास्टर तार बाबू के पद से प्रारम्भ किया । एक अंग्रेज इंस्पेक्टर उन दिनों गालियाँ बहुत देता था । इनको भी एक दिन उसने गालियाँ सुनाई तो थोड़ी देर तो आप सुनते रहे फिर उसको कमर पकड़ कर जमीन पर पटक दिया और सीने पर चढ़ बैठे । लोगों ने बीच-बचाव किया और वह इंस्पेक्टर चुपचाप चला गया । इन पर कोई केस बने उसके पहले ही आप इस्तीफा देकर नौकरी छोड़ आये ।
  • फिर आपने अपना जीवन ग्राम अलीगढ़ जिला फतेहगढ़ में व्यतीत किया । एक प्रतिष्ठित वकील श्रीमान मुन्शी चिम्मनलाल साहब के पास आप कार्य करते रहे तथा श्रीमान लालाजी महाराज के आदेशानुसार उन्हीं वकील साहब के पास अपना आध्यात्मिक अभ्यास भी करते रहे ।
  • अलीगढ़ ग्राम में तहसील का कार्यालय था और यह स्थान फतेहगढ़ से लगभग छः मील उत्तर दिशा में गंगा जी के पार गंगा, रामगंगा के बीच में था । फतेहगढ़ आने जाने के लिये गंगा जी नौका द्वारा ही पार करनी पड़ती थी । आपके ज्येष्ठ सुपुत्र महात्मा बाबू बृजमोहन लाल ने फतेहगढ़ में श्रीमान लाला जी महाराज के संरक्षण तथा देखरेख में विद्याध्ययन किया व सन् 1923 में हाईस्कूल की परीक्षा पास करके पुलिस विभाग में नौकरी कर ली । जब इनकी पोस्टिंग कानपुर हुई तो फिर श्रीमान चच्चाजी महाराज सपरिवार कानपुर आकर रहने लगे ।
  • आपके द्वितीय सुपुत्र महात्मा राधा मोहन लाल ने भी फतेहगढ़ में श्रीमान लाला जी महाराज के पास रहकर हाई स्कूल तक पढ़ा और सन् 1925 में हाईस्कूल परीक्षा पास करके कानपुर में जज साहब के कार्यालय में नौकरी कर ली । छोटे सुपुत्र महात्मा श्री ज्योतिन्द्र मोहन लाल उस समय छोटे थे तथा अध्ययन कर रहे थे, कानपुर आकर पढ़ने लगे ।
  • आपका अलीगढ़ निवास कठोर तपस्या का समय था । श्रीमान महात्मा श्री चिम्मनलाल साहब के निर्देशानुसार आपने कठिन तपस्या की । यहाँ तक कि कई-कई दिन निराहार रह कर तथा रात-रात भर जाग कर आध्यात्मिक अभ्यास की पराकाष्ठा पर पहुँचे । श्रीमान लालाजी महाराज ने आपकी इस कठोर तपस्या तथा आध्यात्मिक तीव्र प्रगति से प्रसन्न होकर अलीगढ़ में ही आपको परम संत सद्गुरु की पदवी प्रदान की ।
  • श्रीमान लालाजी महाराज के प्रति आपके आदर तथा प्रेम के उत्तर में, जिस का वर्णन हम ऊपर कर चुके हैं, आपके लिए श्रीमान लाला जी महाराज का प्रेम भी अगाध था । वे अधिक समय तक उन्हें देखे बिना रह नहीं सकते थे । अतः लगभग मास में एक दो बार या तो श्रीमान लालाजी महाराज इनके पास पहुँचते थे या आप उनकी सेवा में उपस्थित हो जाते थे ।
  • फतेहगढ़ में एक बार आप इतने अधिक अस्वस्थ हो गये कि आपके जीवित रहने की आशा भी क्षीण होने लगी । उस समय श्रीमान लालाजी महाराज की चिन्ता का ठिकाना न रहा । अपने गुरुदेव जो उस समय शरीर में नहीं थे बहुत कुछ अनुनय विनय की । आपकी विनती स्वीकार कर ली गई । कहते हैं कि श्रीमान लालाजी महाराज ने अपनी आयु का एक विशेष भाग आपको देना चाहा था । जिसकी स्वीकृति मिल गई । श्रीमान् लालाजी महाराज तो अपनी आयु के 59 वर्ष भी पूरे नहीं कर सके तथा निर्वाण प्राप्त किया । परन्तु श्रीमान चच्चा महाराज आपके पश्चात् लगभग 16 वर्ष तक आध्यात्मिक क्षेत्र में सर्व साधारण की सेवा करते रहे । श्रीमान लालाजी महाराज के निर्वाण के पश्चात् का आपका जीवन पूर्ण रूप से श्रीमान लालाजी महाराज के जीवन के अनुरूप रहा, तथा वे श्रीमान लालाजी महाराज का ही आध्यात्मिक कार्य जीवन पर्यन्त करते रहे । मुझे पूज्य भाई साहब परम संत डाक्टर श्याम लाल जी गाजियाबाद निवासी ने बतलाया था कि पहले श्रीमान चच्चाजी महाराज फ़रमाया करते थे कि उनकी वापसी (अर्थात् निर्वाण) पहले होगी और श्रीमान लालाजी महाराज की बाद में होगी । जब सन् 1931 में श्रीमान लाला जी महाराज की वापसी हो गई तब इन्हीं श्रीमान डाक्टर साहब ने श्रीमान चच्चाजी महाराज से फिर एक बार प्रश्न किया कि आप तो  फ़रमाते थे आपकी वापसी पहले होगी और श्रीमान लालाजी महाराज की बाद में ? तो आपने बतलाया कि श्रीमान लालाजी महाराज ने अपनी आयु का एक भाग उनको दिया है इस कारण ऐसा हुआ ।
  • सर 1924 के पश्चात् का समय आपका कानपुर नगर में ही बीता । आरम्भ में आपने एक छोटा सा मकान कर्नलगंज खटिकाना में लिया । कुछ वर्ष पश्चात् जब आर्य नगर बसाया जा रहा था तब वहाँ आपके नाम कई प्लाट कर दिये गए । जिनमें से एक आपने अपने लिए रखकर बाकी अपने पास आने वाले अभ्यासियों को बाँट दिए । आपके रहने के लिए यहाँ एक मकान बन गया जिसका नाम 'रघुबर भवन' तथा उस मार्ग का नाम 'सन्त शिरोमणि महात्मा श्री रघुबरदयाल मार्ग' रखा गया ।
  • जहां तक हमारे श्रीमान चच्चा जी महाराज का प्रश्न है हमने स्वयं देखा है कि वे पूज्य माता जी (धर्म पत्नी श्रीमान लालाजी महाराज के सामने सदा हाथ बांध कर खड़े होते थे तथा उनकी प्रत्येक आज्ञा को बहुत अच्छा कह कर शिरोधार्य करते थे ।
  • आप अपने गुरुदेव की याद में तथा आध्यात्मिक ध्यान में हर समय खोये हुए रहते थे तथा सांसारिक भावनाओं को सदा ही भूले हुए रहते थे । गृहस्थ संचालन का कार्य आपकी धर्म पत्नी तथा आपके सुपुत्र श्रीमान महात्मा राधामोहनलाल जी ही देखते और करते थे । आप पूर्णतया जीवन-मुक्त थे । ऐसी दशा होते हुए भी आप पूर्ण व्यवहार कुशल थे । ब्राह्मण कुल के कोई भी महानुभाव आते तो आप उन्हें सदा ही 'पंडित जी पालागन' कह कर सम्बोधित करते थे । छोटे बड़े सबसे उनके अनुरूप ही वार्ता करना आपकी विशेषता थी ।
  • अध्यात्म के गूढ़ तत्वों को भी इतनी सरल भाषा में समझा देते कि बड़े-बड़े विद्वान आश्चर्यचकित रह जाते । अधिकारियों को अध्यात्म की ऊंची से ऊंची दशा पर अपनी शक्ति से पहुंचा कर समझा देते कि यह अमुक स्थान तथा अवस्था है इसे समझ लीजिए । आप के दरबार में एक बार भी यदि कोई पहुँचा तो अध्यात्म का संस्कार लिये बिना नहीं लौटा ।
  • मुझे अपने विद्यार्थी जीवन (1925-1930) में कई वर्ष श्रीमान चच्चा जी महाराज की सेवा में रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ । इसके पश्चात् भी उनकी सेवा में समय-समय पर जाता रहा । परन्तु श्रीमान लालाजी महाराज की सेवा में रहने का अधिक सुअवसर मुझे दुर्भाग्यवश नहीं मिला । गुरुदेव श्रीमान लालाजी महाराज के सन् 1931 में निर्वाण के बाद लगभग 16 वर्ष तक आप सारे सत्संग परिवार का अध्यात्म से सिंचन करते रहे तथा मेरा सम्पर्क आप से ही पूर्ण रूप से बना रहा । मुझे इस मार्ग में सारा मार्ग दर्शन आप ही से मिला और आज भी मिलता है ।
  • प्रथम दर्शन
    टोंक (राजस्थान) से सन् 1925 में हाई स्कूल पास करके मैं कानपुर सनातन धर्म कॉलेज में पढ़ने गया । मेरे भाई साहब बाबू आनन्द स्वरूप जी वहां रहते थे श्रीमान चच्चा जी महाराज की सेवा में जाने वालों में एक पुराने अभ्यासी थे । अक्टूबर 1925 में एक संध्या को वे मुझे भी अपने साथ ले गए और श्रीमान चच्चा जी महाराज के सामने बैठा दिया । थोड़ा सा परिचय दे दिया । श्रीमान जी मुझ से थोड़ी बात करके अपने परिवार के सदस्यों, भाई साहब आदि से बातें करते रहे । लौटते समय मुझसे कहा जब फुरसत हो कभी-कभी हमारे पास आ जाया करो । मेरी आयु उस समय केवल 17 वर्ष की थी । श्रीमान के विषय में मैं क्या समझ सकता था । परन्तु कुछ आकर्षण (खिंचाव) के कारण उनके पास जाने लगा । कुछ दिनों बाद आपने मुझे अभ्यास बतलाया और कराया । आज्ञा दी कि इसे रोज प्रातः कर लिया करो । उनकी दया कृपा से ये अभ्यास तभी से चल रहा है और जीवन पर्यन्त चलता रहेगा ।
  • भाई रोया करो
    श्रीमान लाला जी महाराज के समय की घटना है । एक बार फतेहगढ़ में श्रीमान चच्चा जी महाराज कमरे में विराजे थे । भाई लोग उन्हें घेरे उनकी बातों पर मुग्ध मस्ती में झूम रहे थे । एक भाई ने श्रीमान चच्चा जी से प्रश्न पूछ लिया “चच्चा पूजा में तो जी बिलकुल नहीं लगता, कुछ ऐसा गुर बतलाइये जिससे मन लगने लगे ।” चच्चा जी महाराज ने तुरन्त ही उत्तर दिया, “यह तो बहुत सरल है-भाई रोया करो ।” उन भाई ने कहा “चच्चा हमें तो रोना भी नहीं आता” तो चच्चा ने कहा “उसमें क्या है, तुम्हारा कोई अपना मर जाता है तो रोते नहीं हो, वैसे ही रोओ ।”
  • भाई को गुर मिल गया । रोने का अभ्यास आरम्भ हो गया । एक दिन वे मकान के ऊपर के कमरे में बन्द होकर रो रहे थे कि उनकी आवाज जोर से निकलने लगी और घर वालों का ध्यान उधर आकृष्ट हो गया । कमरे के किवाड़ भड़भड़ाये गये तब कहीं देर से उन्होंने किवाड़ खोले ।
  • उनके इस व्यवहार की शिकायत श्रीमान लाला जी महाराज के पास पहुँची । उनसे बुलाकर पूछा गया तो उन्होंने श्रीमान चच्चा जी महाराज के बतलाये गुर का भेद खोल दिया । श्रीमान लाला जी महाराज को इस बात पर कुछ हंसी आ गई और फ़रमाने लगे, “नन्हे को ऐसी ही बातें सूझा करती हैं ।” उन रोने वाले भाई पर उस दिन से कुछ विशेष कृपा भी हो गई ।
  • श्रीमान चच्चा जी महाराज को उन भाई ने स्वयं ही जाकर यह घटना सुनाई और कहने लगे, “चच्चा आपने ऐसी तरकीब बतलाई कि हमारा काम बन गया । परन्तु आपको थोड़ी डांट पड़ गई ।”
  • श्रीमान चच्चा जी महाराज फ़रमाने लगे-
              “कबीर हँसना दूर कर-रोने से कर प्रीत ।
              बिन रोये कैसे मिले, प्रेम पियारा मीत ।।
              हंस हंस कंत न पाइयाँ, जिन्ह पाया तिन्ह रोय ।
              हंसी हंसी जो पिउ मिले तो कौन दुहागिन होय ।
  • भाई तुम्हारा काम तो हो गया हमें डांट पड़ी सो पड़ी-उसकी चिन्ता न करो ।”
  • रोना और गिड़गिड़ाना, दीनता आधीनता की निशानी है । चच्चा जी महाराज के अनुसार ये दोनों ही बातें भगवान को प्रिय हैं और हमें भगवान के निकट ले जाने वाली हैं ।
  • काँग्रेस का 1925 का अधिवेशन
    पूज्य चच्चा जी महाराज के पास बैठने तथा उनका वार्तालाप सुनने का अवसर सब सत्संगी भाइयों को स्वतंत्रता के साथ मिलता था । करनलगंज वाले मकान में बहुत छोटा सा कमरा था परन्तु जो लोग आते, पूज्य चच्चा जी सब को अपने पास बुलाते जाते और सब लोग खूब सट कर बैठ जाते । जब कानपुर में दिसम्बर सन् 1925 ई॰ में काँग्रेस का अधिवेशन हुआ था, तब बहुत से भाई लोग बाहर से आये थे । सब उसी कमरे में ठहरे थे और रात को भी वहीं खूब सट कर सोते थे । जाड़े का मौसम था ही । श्री पूज्य चच्चा जी महाराज भी सबके साथ ही उसी कमरे में जमीन पर सोते थे, जब लोग जागते तो देखते कि किसी का पैर पूज्य चच्चा जी के पैर के ऊपर पड़ा है तो किसी का हाथ पर । इस सादगी और सामान्य भाव से रहते थे कि जिससे किसी देखने वाले को गुरु और शिष्य के सम्बन्ध का पता ही नहीं चलता था । परन्तु प्रत्येक भाई के हृदय में पूज्यपाद श्री चच्चा जी महाराज के प्रति अपार श्रद्धा एवं विशेष अनुराग था ।
  • संत महात्माओं का सत्संग
    एक बार की घटना है कि श्री चच्चा जी एक गाँव के बाजार में पहुँचे; बिक्री हो रही थी । शाम का समय था । जब चिराग जलने को हुए एक मस्त फकीर झोला लिए बाजार में आये । सब तरफ से कुँजड़े कहने लगे, “देखो आज किस पर मुसीबत आती है ।” फकीर एक सब्जी वाली की दूकान पर रुके उसे अपना झोला और एक पैसा साग के वास्ते दिया । उसने एक पैसे का साग झोले में रख दिया । इसके बाद वह लगभग 1 घण्टे तक हुज्जत करते रहे । अरे भाई थोड़ा और दे दो, थोड़ा और दे दो । यही, बार-बार कहते रहे, फिर झोला उठा कर चल दिये । श्री चच्चा जी उनके पीछे हो लिये । लगभग एक मील चलकर फकीर अपनी कुटिया में पहुँचे । पूज्य चच्चा जी को देखकर उन्हें प्रेम से बैठाया खातिर की और फिर रूहानी दावत शुरू हो गई । बड़ा आनन्द रहा ।
  • चच्चा जी ने अन्त में कहा-महाराज ! यहाँ यह हालत और वहाँ वह दशा । उन्होंने जवाब दिया-क्या करुँ ? यदि इस तरह न रहूँ तो पीछा छुड़ाना मुश्किल हो जाये-कहीं कोई मुकदमा जिताने को कहता है, कोई पुत्र माँगता है कोई धन माँगता है इत्यादि । सभी लोग आकर घेरने लगेंगे, फिर तो मेरा यहाँ रहना मुश्किल हो जायेगा ।
  • ठीक यही हाल था पूज्य चच्चा जी का । तहसील अलीगढ़ जिला फर्रुखाबाद में 27 वर्ष तक रहे, पर कोई न जान सका वे राम-नाम भी जानते हैं । मकान के बाहर दरवाजे पर एक चारपाई पर बैठे रहते थे ओर हुक्का बराबर चलता रहता था । दिन भर के बाद शाम को पैसे सवा पैसे के चने या दूध लेते थे, रात को भी यहीं पड़े रहते थे । उन दिनों आरायज नवीसी करते थे । जो कुछ मिला रास्ते में बच्चों को ही बँट जाता था; सैकड़ों रुपए मुवक्किल लोग इनके यहाँ रख जाते और जब चाहते उठा ले जाते थे । घर बिना ताला कुंजी के वैसा ही खुला पड़ा रहता था । लोग कहते, जो उनका मुँह सुबह उठ कर देख लेगा, उसे उस दिन खाना नहीं मिलेगा । ऐसा लोगों से बचने के लिए स्वयं चच्चा जी ने माहौल बना रखा था ।
  • दूसरी घटना
    एक बार पूज्य चच्चा जी ट्रेन से कहीं जा रहे थे । ट्रेन अकस्मात ही एक जंगल में रुक गई और एक आदमी उतर कर जंगल की ओर चल दिया । चच्चा जी भी उतर कर उसके पीछे हो लिये । काफी घने जंगल में जाकर वह एक झाड़ी में कूद कर छिप गया । यह सदा सुहागिन था (यह एक संप्रदाय है जिसके साधु स्त्री-वेष में रहते है) । चच्चा जी भी कूदकर अन्दर पहुंच गए-एक तरफ को सिमटते हुए उसने कहा- “उइ ! मरदुआ कहाँ से?” (यह मर्द कहाँ से आया । संतों की भाषा में पूर्ण संत को मर्द कहा जाता है) । चच्चा जी ने उत्तर दिया-”मरदुआ हो तब ना ?” तब उसने कहा, “अच्छा आओ गुइयाँ आओ बैठ जाओ ।” दोनों बैठ गये । रूहानी दावत शुरू हो गई, पहले उसकी तरफ से खातिरदारी हुई । बड़ा आनन्द रहा । फिर उसने चच्चा जी से दरख्वास्त की । आँखें मिंच गईं और पूजा आरम्भ हो गई । थोड़ी देर बाद आँख खुलने पर उसने कहा- “गुइयाँ खूब रही ।”
  • फिर चच्चा जी को बताया यह तो बड़ा घना जंगल है, स्टेशन बहुत दूर है, तुम आँखें बन्द करो । चच्चा जी ने आँख बन्द की, और जब आँखें खोली तो अपने आपको स्टेशन पर पाया ट्रेन खड़ी थी, बैठ गए और ट्रेन चल दी । लगता है उनकी प्रतीक्षा में ट्रेन खड़ी थी ।
  • एक बार श्री चच्चा जी महाराज कुम्भ के अवसर पर प्रयाग गये हुये थे । साथ में बहुत से सत्संगी भाई भी थे । एक दिन डेरे के अन्दर सब सज्जन बैठे हुए थे कि एक सन्यासी जी आए । कुछ देर तक खड़े देखते रहे और कहा, “तुम में कौन महात्मा है ?” उनके दो-तीन बार पूछने पर श्री चच्चा जी ने कहा, 'ये सब महात्मा हैं ।' वे सन्यासी जी हैरान होकर चल दिये । थोड़ी देर बाद फिर लौट कर आये और लगभग एक घण्टा बैठे रहे । आँखें भी बन्द की और फिर चलते समय कहने लगे, भाई खूब छिपाते हो तथा प्रसन्न होकर चले गये ।
  • शिक्षा का तरीका
    पूज्य चच्चा जी महाराज के शिक्षा देने का ढंग अनोखा था । वे शिष्टाचार विनम्रता आदि अन्य व्यवहार की शिक्षा विचित्र ढंग से देते थे । गुप्त रूप से काम करते थे तथा कभी किसी की आलोचना नहीं करते थे । न किसी को किसी बात के लिए प्रत्यक्ष में मना करते थे । साधारण उपदेश में सब बातें कह जाते जिसे केवल वही व्यक्ति समझ पाता जिसके सम्बन्ध में बात कही जाती थी । उनके पास चिन्ता, अशान्ति, द्वेष आदि से पीड़ित जो भी व्यक्ति जाता, उसके सारे क्लेश दर्शन मात्र से वैसे ही दूर हो जाते-जैसे भगवान भास्कर के प्रकाश से सारा अन्धकार दूर हो जाता है । लोग अनेकों शंकायें तथा प्रश्नों को लेकर उनके पास जाते और बिना पूछे ही उनके प्रश्न हल हो जाते ।
  • इसी सम्बन्ध की एक घटना है । एक बार एक नये सत्संगी भाई आये । उनको आते हुये आठ दिन हुये थे । एक दिन उनके मन में आया कि जो झगड़ा उनका उनके बहनोई जी से कई वर्षों से चला आ रहा है, वह समाप्त हो जाये और उनसे मेल हो जाये । सौभाग्य से होली के दिन थे । वे अपने बहनोई के घर में पहुँचे । उनके पैर छुये और होली मिले । वर्षों का द्वेष क्षण मात्र में दूर हो गया । लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ । यह सब पूज्य चच्चा जी महाराज का ही प्रताप था ।
  •           “उमा न कछु कपि कै अधिकाई, प्रभु प्रताप जो कालहिं खाई ।”
  • पूज्य चच्चा जी कहा नहीं करते, कर दिया करते थे । इसी प्रकार लोगों की बुरी आदतें उनके पास बैठने से ही चली जाती थीं । ऊपर से तो वे बड़ी दिल लुभाने वाली लच्छेदार बातें किया करते और अन्दर ही अन्दर हृदय के मैल को साफ करके निर्मल बना देते थे । यह बात बड़ी कठिनाई से कहीं-कहीं देखने में आती है ।
  • सत्संगियों में से एक श्रीमान को मदिरापान की आदत थी और धनाढ्य होने के कारण मदिरा-पान में इच्छानुसार धन भी व्यय किया करते थे । एक दिन पूज्य चच्चा जी से एकान्त में बात हुई । उन सज्जन ने कहा कि यह मेरा बहुत बुरा व्यसन है । अब आगे से मद्यपान न करुंगा । किन्तु 10-15 दिन बाद एक दिन उन्होंने फिर मदिरा पी ली । सत्संग के बाद जब सब लोग चले गये और वह अकेले रह गये, तो उनकी फिर पूज्य चच्चा जी से बातचीत हुई । उन्होंने चच्चा जी के समक्ष अपनी गलती को स्वीकार किया और भविष्य में फिर मद्यपान न करने की दृढ़ प्रतिज्ञा की । इसके बाद 8-10 दिन बीत जाने पर एक दिन फिर उन्हीं सज्जन की एकान्त में पूज्य चच्चा जी से वार्ता हुई । उन्होंने कहा, मेरी मदिरा तो छूट नहीं सकती, मैंने कल फिर पी ली थी । अतः मैं अब इसे छोड़ने का प्रयत्न भी न करुंगा और कल से यहाँ भी नहीं आऊँगा । इस पर पूज्य चच्चा जी महाराज ने कहा, मैंने तो आपको कभी शराब पीने को मना नहीं किया । आपने स्वयं ही छोड़ने की प्रतिज्ञा की थी । इसमें मेरा क्या अपराध है जो कल से आप नहीं आयेंगे । आप मदिरापान कीजिये, पर मुझ पर इतनी कृपा कीजिये कि मुझे बतला जाया कीजिये कि आज आपने कितनी पी है । इस बात को उन्होंने स्वीकार कर लिया । इसके बाद वे नित्यप्रति जाते समय चच्चा जी के कान में कुछ कह जाते थे । चार-पाँच दिन तक ऐसा होता रहा । फिर पच्चीस दिन या एक महीने बाद उन्होंने एक दिन पूज्य चच्चा जी से कहा कि आज मैं आपसे लड़ने आया हूँ । पूज्य चच्चा जी ने कहा, भाई साहब ! मुझसे क्या अपराध हुआ । उन्होंने बताया-लगभग एक मास हो गया, मैंने मदिरा-पान नहीं किया । मुझको उसकी याद भी नहीं आती । मुझे उसकी इच्छा भी नहीं होती, अपितु एक प्रकार की घृणा हो रही है । जब आप इतनी आसानी से मेरा दुर्व्यसन छुड़ा सकते थे, तो आपने मुझको इतना परेशान क्यों किया । पूज्य चच्चा जी ने कहा, भाई आपने अपने आप ही प्रतिज्ञा की थी । जब आप उसको पूरा न कर सके और हार मान ली तो मैंने सोचा कि मैं ही उसके दरवाजे पर गिड़गिड़ा कर आपके लिये प्रार्थना करुँ । धन्यवाद है उस मालिक को, उसने मेरी प्रार्थना स्वीकार कर ली । इसी प्रकार पूज्य चच्चा जी बड़े बड़े काम करते, पर कभी नहीं कहते कि मैंने यह काम किया ।
    मुंशी जी
  • पूज्य चच्चा जी के पड़ोस में एक मुंशी जी रहते थे । ये बहुत दीन थे । इनके बाल बच्चे भी थे । कभी-कभी फाका भी करना पड़ता था । पूज्य चच्चा जी महाराज इनको सहायता भी दिया करते थे और दूसरों से भी दिलवाया करते थे । तंग आकर एक दिन सुबह ये गंगा जी गये । कपड़े उतार कर गंगा जी में घुसे और डूब मरने का इरादा किया । इतने में देखा कि चच्चा जी डंडा लिये आ रहे हैं और डाँट कर कहते हैं-क्या अनर्थ करते हो, पानी से बाहर निकलो ? डाँट के मारे वह घबरा गये और पानी से बाहर निकल आये । जल्दी में कपड़े तथा जूते हाथ में उठा कर भागे । स्वयं भागते जाते और पीछे देखते जाते कि पूज्य चच्चा जी महाराज डंडा लिये आ रहे हैं । जब नगर के समीप आ गये तो देखा कि चच्चा जी नहीं हैं । मुंशी जी ने कपड़े आदि पहने और सीधे चच्चाजी के मकान पर आये । देखा कि आप आराम से बैठे हुक्का पी रहे हैं और सत्संगियों से बातचीत कर रहे हैं । इनको देख कर बहुत हँसे और पूछा कहिए मुंशी जी ! मिजाज अच्छा है । उन्होंने सब किस्सा अर्ज कर दिया । आप हँसने लगे । मुंशी जी ने सत्संगियों से एकान्त में पूछा, तो ज्ञात हुआ कि आप प्रातः काल से यहीं बैठे हैं और कहीं नहीं गये ।
  • सिद्धि का प्रदर्शन
  • एक बार श्री पूज्य चच्चाजी महाराज के पास एक पण्डित जी आये । उनको एक सिद्धि प्राप्त थी, जिसके द्वारा जब चाहें जिस किसी की ज़ुबान बन्द कर देते थे । वह व्यक्ति फिर बोलने में असमर्थ हो जाता था । पण्डित जी ने अपनी शक्ति का प्रयोग पूज्य चच्चा जी महाराज पर भी किया । थोड़ी देर तक वह चुप बैठे रहे । फिर उन्होंने कागज पर लिख कर दिया कि कृपा करके आप मेरी ज़ुबान खोल दें । पण्डित जी अहंकार के मद में डूबे हुए थे । उन्होंने पूज्य चच्चा जी महाराज की बात हंस कर टाल दी । जब वे नहीं माने, तो पूज्य चच्चा जी महाराज बात करने लगे । इसको देखकर पण्डित जी को आश्चर्य हुआ और उठ कर चले गए । कुछ समय बाद पण्डित जी पूज्य चच्चाजी के पास आए और पैर पकड़ कर फूट-फूट कर रोने लगे । कहा, “मैं तो लुट गया । मेरी शक्ति छिन गई जिसके द्वारा मैं कमाने का धन्धा किया करता था । अब मैं क्या करुँ ?” सन्त दयालु होते हैं । फिर वह तो परम सन्त थे । उनको दया आ गई । उन्होंने उनकी शक्ति को वापस लौटा दिया और कहा, “अहंकार अच्छा नहीं होता ।”
  • ढोंगी सन्यासी
  • एक सन्यासी जी अपने चेले के साथ पूज्य लाला जी के पास आये । एक दिन बाहर बरामदे में पूज्य चच्चा जी का हंसी मजाक का दरबार जारी था, वहीं सन्यासी जी के चेले भी बैठ गये ।
  • कुछ बातों में प्रसंग में पूज्य चच्चा जी ने कहा- “ये सन्यासी नहीं हैं, गलत कहते हैं ।” उन्हें यह बात बड़ी बुरी लगी । उन्होंने इसकी शिकायत अपने गुरु जी से की और फिर उनके गुरु जी ने बात पूज्य लाला जी से कह दी । पूज्य लाला जी ने चच्चा जी बुलाया और पूछा-”क्यों ? आपने इनसे कह दिया कि यह सन्यासी नहीं हैं ? झूठ बोलते हैं ?”
  • चच्चा जी ने सन्यासी जी के चेले को सम्बोधित करते हुए कहा कि गृहस्थ के तो सिर्फ एक पत्नी होती है, परन्तु आपके तो दो पत्नीयाँ हैं । सब लोग आश्चर्य से चच्चा जी की तरफ देखने लगे । चच्चा जी ने कहा “आपकी एक पत्नी जो सदैव आपके साथ रहती है और वह जैसा चाहती है, आपसे करवाती है वह है-आपका मन और आपकी दूसरी पत्नी जो 5 हाथ की है वह आपके घर पर बैठी है । इस पर आप अपने को सन्यासी कहते हैं ?” सब की विस्मित आँखें अब सन्यासी जी के चेले पर थी, जिनका मुँह सूख गया था, गला रूँध गया था, हवाइयाँ उड़ रही थी और पसीना छूट रहा था । चच्चा जी इतना कह कर बाहर चले आये और सन्यासी जी ने अपने चेले को डाँटना शुरू कर दिया-”क्यों रे ! तूनें तो कहा था, तेरे स्त्री नहीं है.. ।” वह चेला अपनी स्त्री को छोड़कर सन्यासी बन गया था ।
  • भक्तों की संभाल
  • श्री पूज्य चच्चा जी महाराज के एक भक्त का तार आया कि उनका लड़का सख्त बीमार है । ट्रेन छूटने का समय अति निकट था, इसलिए श्री चच्चा जी महाराज शाम को बिना भोजन किये ही वहाँ को चल दिये । इनके साथ एक सत्संगी भाई भी थे । ट्रेन उस दिन कुछ लेट हो गई । भक्त प्रतीक्षा करते-करते सो गये । जब ये लोग उनके घर पहुँचे तो दरवाजा बन्द था । श्री चच्चा जी महाराज ने सत्संगी भाई से कहा कि आवाज मत दो और मत जगाओ । बेचारे तीमारदारी में जागते रहे होंगे-नींद लग गई है । आराम कर लेने दो । अतः दोनों साहब बाहर ही चबूतरे पर रात भर वैसे ही पड़े रहे । जब सुबह भक्त ने दरवाजा खोला तो इन लोगों को देखकर अवाक रह गये ।
  • पूज्य चच्चा जी दुर्गुणों को सद्गुणों में बड़ी ही सरलता से एवं सुगमता से परिणत कर देते थे । उनका एक बड़ा सुन्दर उदाहरण यहाँ प्रस्तुत किया जाता है । एक सत्संगी भाई को समाचार पत्रों के पढ़ने का व्यसन था । उन दिनों द्वितीय महायुद्ध चल रहा था । पूज्य चच्चा जी ने कहा, भाई ! मुझे युद्ध के समाचार एकत्रित करके सुनाया करो । अतः वे सत्संगी जी समाचारों को एकत्रित किया करते । इस प्रकार उन्हें पूज्य चच्चा जी का सदैव स्मरण रहता । 

Find out more

Mahatma Krishna Swaroop ji

1/2

36-3 हजरत जनाब महात्मा डॉ॰ कृष्ण स्वरूप साहब

  • परम संत महात्मा डॉ॰ कृष्ण स्वरूप साहब का जन्म भौगांव में 22 दिसम्बर 1879 को हुआ । आपके पिता श्रीमान उलफ़त राय साहब श्रीमान लालाजी महाराज के खास चाचा थे । कहा जाता है कि आप जन्म जात संत थे । अतएव गुरु कृपा तथा पूर्व जन्म के सुसंस्कारों के कारण आपको 23 वर्ष की आयु में ही गुरु पदवी प्राप्त हो गई । उसके पश्चात् आप निरंतर रूहानियत की बरकत अपने गुरुदेव के आदेशानुसार बाँटते रहे ।
  • परम संत डॉ॰ कृष्ण स्वरूप जी अपने बड़े भाई परम संत महात्मा रामचन्द्रजी साहब के पास फर्रुखाबाद में विद्याध्ययन के लिये आकर रहते थे । आप भी महात्मा जी के साथ उनके सद्गुरु परम संत मौलवी फज़ल अहमद खाँ साहब के पास मुफ्ती मदरसे में उर्दू-फारसी पढ़ा करते थे । आपको बचपन में पतंग उड़ाने का बहुत शौक था । एक दिन कटी हुई पतंग को लूटने के लिये बालक कृष्ण स्वरूप जी मुफ्ती मदरसे के अहाते में अन्य बालकों के साथ पहुँच गये । उस कटी हुई पतंग का धागा परम संत सद्गुरु मौलाना फज़ल अहमद खाँ साहब के हाथ में आ गया । आपने उस पतंग को पकड़ कर बालक कृष्ण स्वरूप को कहा कि “आओ यह पतंग ले लो ।” पतंग के लालच से जैसे वे मौलवी साहब के पास पहुँचे उन्होंने उन्हें पकड़ कर गोदी में बिठा लिया और बड़ी देर तक पतंग उड़ाते रहे । उसी वक्त महात्मा रामचन्द्र साहब भी उनके पास उर्दू फारसी पढ़ रहे थे । मौलवी साहब ने महात्मा जी से फ़रमाया कि “मुंशी जी, आज से ये आपके छोटे भाई हमारे हो गये ।” उसी दिन से डॉ॰ कृष्ण स्वरूप साहब का झुकाव रूहानियत की तरफ हो गया । आपके घर में आपकी माता जी परम भगवत् भक्त थीं । वे शिव जी की उपासना किया करती थीं । वे रामायण की भी बड़ी प्रेमी थीं । उन्होंने बाल्यकाल से ही बालक कृष्ण स्वरूप को कर्म-कांड व पूजा पाठ में लगा दिया था । ये भी रोज शंकर जी के मन्दिर में जाकर शंकर की मूर्ति को हज़ारों बिल्व पत्र चढ़ाया करते थे । एक दिन उन्होंने शंकर जी की मूर्ति पर कोई खराब चीज पड़ी हुई देख ली । इस पर आपके हृदय को बड़ी चोट लगी कि यह कैसा सर्वशक्तिमान ईश्वर है, जिसमें अपने ऊपर से बुरी चीज हटाने की भी शक्ति नहीं है ? उस दिन से आपने शंकर जी पर बिल्व पत्र चढ़ाना बंद कर दिया । इस कारण आपकी माता जी ने आपकी एक बार बहुत पिटाई भी की । परन्तु आपका जी कर्मकाण्ड से ऊब गया । रामायण के सातों काण्ड आपको मुखाग्र याद थे । यही नहीं उन्हें सम्पूर्ण भगवद् गीता भी जबानी याद थी, इसीलिए वे जवानी में 'हाफिज जी' कहलाते थे । क़ुतुबबीनी यह आलम था कि नवल किशोर प्रेस लखनऊ में छपने वाली हर पुस्तक उनके पास नियमपूर्वक भेजी जाती थी । उनका पढ़ाई का यह शौक ही उन्हें आगरा मेडिकल स्कूल में ले गया ।
  • परम संत महात्मा रामचन्द्र जी के यहाँ फरुखाबाद में ही आपकी शिक्षा दीक्षा हुई । जीवन के एक मुबारिक दिन परम संत मौलवी साहब ने डॉ॰ कृष्ण स्वरूप जी को दीक्षा देकर महात्मा रामचन्द्र जी के सुपुर्द कर दिया यह कह कर कि वे इनकी रूहानी तालीम अपनी खास तवज्जोह से पूरी कर दें । महात्मा रामचन्द्र का भी आप पर अपार स्नेह था । डॉ॰ साहब भी महात्मा जी को अपना सर्वस्व मानते
  • एक बार महात्मा जी से किसी सत्संगी भाई ने फतेहगढ़ में पूछा कि आप मथन्नी चच्चा (डॉ॰ कृष्ण स्वरूप जी) पर इतनी कृपा क्यों रखते हैं तो आपने मुस्करा कर फ़रमाया “वह मेरे सीने से उसी तरह चिपट कर हमेशा रूहानियत खींचता रहता है जैसे माता के स्तनों से बच्चा चिपटा रहता है ।” जब डाक्टर साहब लालाजी साहब के पास फर्रुखाबाद रहते थे तो अभ्यास की ज्यादती से जलाल इतना बढ़ गया कि चेहरा व आँखें सुर्ख रहती थीं । लालाजी साहब ने हिदायत कर रखी थी कि कोई भी विशेषकर बच्चों को, उनके बिस्तर पर न सुलाया जावे क्योंकि वैसा करने से संभवतः मौत हो सकती थी । इसकी खबर जब रायपुर वाले हुजूर पूज्य फज़्ल अहमद खां साहब तक पहुंची तो आप उनकी खिदमत में पैदल चलकर पहुँचे व कहते हैं 20 मील का रास्ता मात्र आधा घंटे में तय किया व सलाम अर्ज किया । वे बोले बरखुरदार यह क्या माजरा है ? हम ये क्या सुन रहे हैं ? उन्होंने अपने पास रखे अमरूद में से एक काश (टुकड़ा) काट कर डाक्टर साहब को खाने के लिए दी । वे कहते थे कि उसे खाते ही उन्हें यह अहसास हुआ कि किसी ने सैकड़ों घड़े ठंडा पानी उनके ऊपर डाल दिया हो और शीतलता छा गई व वह ज़लाली हालत भी शान्त हो गई ।
  • परिणाम यह हुआ कि जब मैट्रिक पास करके आप आगरे के मेडिकल स्कूल में गये, उसके पूर्व ही आपको (रूहानी) इजाजत दे दी गई थी । जब आप मेडिकल स्कूल आगरे में पढ़ा करते थे तो सवेरे उठ कर नित्य नियम किया करते थे । आपका साथी (रूम मेट) आपकी खिल्ली उड़ाया करता था व परेशान किया करता था । एक दिन रात को, जब उसने बहुत शैतानी की तो आपने उसे तवज्जोह देनी शुरू की । वह अपनी चारपाई पर छटपटाने लगा । उसका दिल दब कर मरणासन्न हो गया । उसने आपसे अनुनय विनय की तो आपने उसकी हालत अच्छी कर दी । उस दिन से मेडिकल होस्टल में भी अन्य विद्यार्थी आप को मानने लगे ।
  • आगरा में वे पहले गोकलपुरा मोहल्ले में रहते थे, उनके पास मौजी राम नामक एक सहायक रहता था । एक दिन वे आसन पर पूजा करने बैठ गए माला जो खूंटी पर टंगी थी पास लेना भूल गए । उन्होंने मौजी राम से माला ला देने के लिए कहा । जब बहुत देर तक वह माला नहीं लाया तो आपने मौजी राम से पूछा कि माला क्यों नहीं दे रहा है । मौजी ने जवाब दिया कि खूंटी पर टंगी माला हाथ ही नहीं आ रही है । वह स्टूल पर चढ़ कर उसे उतारने की कोशिश भी कर चुका है । तब आपने उससे कहा कि तुमने अपने हाथ धो लिये थे या नहीं । उसने कहा कि वह लघुशंका करने के बाद हाथ धोना भूल गया था । उनके कहने से जब वह हाथ धो कर माला लेने पहुंचा तो माला सहज ही उसके हाथ आ गई जो उसने उन्हें दे दी । लालाजी महाराज भी उनके पास कई बार आगरा जाया करते थे ।
  • इसी प्रकार एक बार रतलाम में भी यादव लाल बरौदिया के घर सत्संग हुआ करता था । उसमें कालेज के एक मुस्लिम अध्यापक भी आया करते थे । डाक्टर साहब की फ्रेम जड़ित तस्वीर दीवार पर टंगी थी, जैसे ही उन मुस्लिम सज्जन ने डाक्टर साहब की टंगी हुई फोटो पर फूलों की माला चढ़ाने का प्रयत्न किया, वह तस्वीर भयंकर धमाके के साथ जमीन पर गिर कर चूर हो गई । सब चौंक गए । पूछने पर उन्होंने बताया कि वे अपवित्र हालत में बिना स्नान किए आए थे और माला चढ़ा रहे थे ।
  • सैलाना रावटी
  • मेडिकल स्कूल से अपनी शिक्षा समाप्त कर लेने के पश्चात् आपने होमियोपैथिक शिक्षा भी डिप्लोमा लेकर यथाविधि प्राप्त की । यह उपाधि लेने के बाद आप कुछ समय फुलेरा में अपने बड़े भाई श्रीहरप्रसाद जी साहब के साथ रहे । उसी समय रतलाम के पास मध्य भारत की एक छोटी-सी स्टेट सैलाने में मेडिकल ऑफिसर का पद रिक्त हुआ । समाचार पत्रों में उसका विज्ञापन छपा । उसे पढ़ कर आपने अर्जी भेजी और आपकी नियुक्ति मेडिकल ऑफिसर रावटी के पद पर हो गई । आप रावटी सर 1915 में पधारे । रावटी बम्बई दिल्ली लाइन पर एक छोटा सा स्टेशन है जो बम्बई की तरफ रतलाम जंक्शन से चौथा स्टेशन है । रावटी स्टेशन से रावटी गांव 5 मील दूर है वहाँ पैदल चल कर पहुँचना पड़ता था । रावटी के अस्पताल में आप डाक्टर थे । पं॰ रेवा शंकर जी (डॉ॰ शर्मा) आपके कम्पाउण्डर थे और पंडित हीरा लाल आपके यहाँ ड्रेसर थे । उसी समय रावटी में सेठ जगन्नाथ जी नाम के एक महानुभाव ठेकेदार थे । वे ही आपके मालवे में सर्वप्रथम शिष्य बने । बाद में पं॰ हीरा लाल तथा डॉक्टर शर्मा एक साथ आपके शिष्य हुए ।
  • पं॰ हीरा लाल जी आपके साथ ही रहते थे आपका भोजन बनाना आदि सब काम किया करते थे । एक दिन पं॰ हीरा लाल जी बावड़ी पर पानी भरने गये । उस बावड़ी में अन्दर नहाने की मनाही थी । हीरा लाल जी ने सोचा कि कोई देखता तो है नहीं, चलो बावड़ी के अन्दर ही नहा लिया जावे । उन्होंने बावड़ी में ही डुबकी लगा ली । नहा कर कंधे पर भरा हुआ पानी का बरतन रक्खे घर पहुँचे । श्रीमान डॉक्टर साहब ने आपको देखते ही पूछा, “क्यों भाई हीरा लाल बावड़ी के अन्दर नहाए या बाहर ?” पं॰ हीरा लाल जी ने सहज भाव से कह दिया कि - बाहर नहाया । इस पर डाक्टर साहब ने फ़रमाया कि - “भाई हम तो देख रहे थे कि तुम बावड़ी के अन्दर नहाये ?” इस घटना से पं॰ हीरा लाल की आन्तरिक आँखें खुल गई । आप उसी समय से श्रीमान् डॉ॰ साहब के शिष्य हो गये ।
  • एक बार रात के समय श्रीमान डॉ॰ साहब कृष्ण स्वरूप जी पं॰ गोरी शंकर जी से मिलने आए । मौसम कड़ाके की ठंड का था । पंडित जी खूब कपड़े पहन कर लिहाफ़ ओढ़ कर बन्द कमरे में सिगड़ी ताप रहे थे । आप आकर बैठे और आपने उनको तवज्जोह देना शुरू किया । परिणाम यह हुआ कि 10 मिनट में सब कपड़े उतार कर वे कमरे के बाहर टहलने लगे । पूछने पर बताया कि बहुत गर्मी मालूम होती है । जब आपने तवज्जोह देना बन्द कर दिया तो फिर धीरे-धीरे सब कपड़े पहन कर सिगड़ी तापने लगे । डॉ॰ रेवा शंकर को भी आपने दीक्षा दी थी । वे भी समाधि में इस प्रकार डूब जाया करते थे कि अस्पताल का समय हो जाने पर भी उनकी समाधि नहीं टूटती थी ।
  • रावटीवाले पं॰ हीरा लाल जी कहा करते थे कि “श्रीमान्” (मालवे वाले उन्हें इसी सम्बोधन से पुकारते थे) लगातार 12 वर्ष तक नहीं सोए । वे उनके पूजा के समय अजमेर से सशरीर रावटी उपस्थित होते थे व बाद में अन्तर्ध्यान हो जाते थे । पं॰ हीरा लाल जी स्वयं को चिकोटी काट कर देखा करते थे कि यह कहीं स्वप्न तो नहीं ।
  • यही बात यादव लाल जी ने, जो उस समय कोटा बैराज पर ओवरसीयर का काम करते थे, ने भी कही थी । वे कहते थे कि श्रीमान् कई बार पूजा के समय उनके पास सशरीर उपस्थित होकर, उन्हें हिदायत करके लुप्त हो जाते थे । तब श्रीमान् जयपुर में रहते थे ।
  • रावटी में श्रीमान् की प्रसिद्धि वहाँ के महाराजा साहब तक पहुँची । वे उन्हें बड़े आदर से पेश आते थे और श्रीमान् की बात कभी नहीं टालते थे । यहाँ तक कि धीरे-धीरे महाराज साहब श्रीमान् से अपने प्राइवेट सेक्रेटरी का काम भी लेने लगे थे । वे कहा करते थे कि “डाक्टर जो काम (साधना) तुम करते हो, वही मैं भी करता हूँ मगर मैं जाहिर में करता हूँ और तुम पोशीदा ।”
  • श्रीमान लालाजी महाराज रावटी में
  • परम संत महात्मा रामचन्द्र साहब भी, श्रीमान डॉ॰ साहब के आग्रह पर सन् 1930 में रावटी और सैलाना पधारे थे तो आपकी निगाह में वह आकर्षण था कि अनेकानेक सत्संगी दूर-दूर से आकर रावटी में एकत्रित होने लगे ।
  • कई हिन्दू, मुसलमान, ईसाई व हरिजन आपके प्रभाव में आकर सत्संग में शामिल हो गये, और आपने सब को अपने आत्मिक प्रवाह (रूहानी फ़ैज़) से तृप्त किया । चलते समय वे वहाँ का सत्संग हीरा लाल जी को सौंप गये क्योंकि श्रीमान डॉ॰ साहब अजमेर पधार गये थे ।
  • परम संत महात्मा रामचंद्र जी के पास रावटी में एक वृद्ध ब्राह्मण भगवान जी पटवारी आए जिनकी आयु 80 वर्ष की थी । उन्होंने विह्वल होकर नेत्रों में अश्रु भर कर महात्मा जी से निवेदन किया कि मुझे भी राम भजन सिखलाइये । महात्मा जी कुछ देर मौन रहे और फ़रमाया कि आपका शरीर तो बिलकुल काम नहीं देता है । आप क्या कर सकेंगे ? ये सुन कर वह वृद्ध फूट-फूट कर रोने लगे और महात्मा जी के चरण पकड़ लिये । महात्मा जी ने उनकी पीठ ठोक कर फ़रमाया कि “जाओ आप का सब काम बन गया ।” उन वृद्ध के चले जाने के बाद आपने पं॰ हीरा लाल जी से फ़रमाया कि “भाई हमने इन वृद्ध का काम पूरा कर दिया क्योंकि इनसे अब कुछ हो नहीं सकता था ।”
  • जब महात्मा रामचन्द्र जी सत्संग के सिलसिले में रावटी से सैलाना पधारे तो श्रीमान् डाक्टर साहब के बड़े भाई होने के नाते आपसे मिलने राज्य के बड़े-बड़े अधिकारी आये । इस समय तक श्रीमान डॉ॰ साहब की रूहानी शोहरत भी खूब हो चुकी थी । सैलाना स्टेट के न्यायाधीश पं॰ गोवर्धन लाल जी भट्ट थे । वे भी महात्मा जी का नाम सुन कर उनके पास आए और राम नाम सिखाने के लिये अर्ज़ किया । जब महात्मा जी ने आपको तवज्जोह दी तो आपका दिल विशेष कठोर प्रतीत हुआ । आपने जज साहब को तत्काल डॉ॰ साहब के पास जाने का आदेश दिया क्योंकि डॉ॰ साहब की तवज्जोह बड़ी सख्त व तेज हुआ करती थी और वह पत्थर से हृदय को भी पिघला कर मोम कर देती थी । बुरे से बुरे संस्कारों को बात की बात में खाक कर देती थी । श्रीमान जज साहब को डॉक्टर साहब ने आँख बन्द करके बैठने का आदेश दिया और आपने जोर की तवज्जोह देना प्रारंभ किया । जज साहब के दिल में से संस्कारों के जलने का ऐसा काला धुआं निकला जैसा रेल के इंजन में से निकला करता है । उस दिन से जज सा भी सत्संग में शामिल हो गये ।
  • रावटी में लालाजी महाराज ने दिगन्त को अपने नूर से आप्लावित कर दिया । वह असर आज तक अनुभव किया जा सकता है ।
  • श्रीमान् डॉक्टर साहब जब रावटी में निवास करते थे उस समय पं॰ हीरा लाल जी तथा डॉ॰ शर्मा ने आपकी इतनी सेवा की, कि आप उन से अत्यधिक प्रसन्न थे । पं॰ हीरा लाल जी ने अपना सर्वस्व आपको अर्पण कर दिया था ।
  • एक समय आपने फ़रमाया कि जब मैं महात्मा जी का ख्याल (ध्यान) करता हूँ तो उनकी जैसी शकल हो जाती है और जब मौलवी साहब मौलाना परम संत फज़्ल अहमद खाँ साहब का ख्याल करता हूँ तो उनकी जैसी शकल नजर आने लगती है । रावटी में आपने पाँच बरस निवास कर मालवे के सैकड़ों जीवों का उद्धार कर दिया । उसके बाद आप सैलाना राज्य से नौकरी छोड़ कर अजमेर पधार गये ।
  • रावटी छोड़ कर डाक्टर साहब अजमेर चले आए । जिस मकान में वे रहे उनके मालिक का लड़का आवारा होकर घर से भाग गया । मकान मालिक ने किसी अवधूत के पास जाकर उसका हाल पूछने के लिए डाक्टर साहब को साथ ले जाना चाहा । डाक्टर साहब ने बहुत मना किया मगर वे नहीं माने । उन्होंने कहा भी कि मेरे जाने से आपका काम नहीं होगा । जब डाक्टर साहब गए तो अवधूत एक छोटे से मन्दिर में बैठे थे । इन्होंने सलाम किया तो वे पीछे घूम कर बैठ गए । इन्होंने फिर सामने जाकर सलाम किया तो अवधूत वह स्थान छोड़ कर भाग गए । कारण यह था कि सालिक के सामने मज्जूब (अवधूत) नहीं टिक सकते ।
  • अजमेर में ही एक जटा जटाधारी सन्यासी डाक्टर साहब के पास आए और उनका शिष्य बनने की इच्छा जाहिर की । डाक्टर साहब ने कहा कि वे तो एक गृहस्थ हैं और इस बारे में वे क्या जानें । सन्यासी जी ने कहा कि वे उनका पीछा छोड़ने वाले नहीं हैं क्योंकि उन्होंने डाक्टर साहब की प्रयाग के कुंभ के अवसर पर बहुत तारीफ सुनी है । डाक्टर साहब ने अन्ततः उनसे पूछा कि क्या उनके कोई गुरु हैं ? उनके हाँ कहने पर उन्होंने कहा कि जाओ पहले उनसे मेरा शिष्य बनने की अनुमति लेकर आओ । कई वर्ष बाद जब रमते राम उनके गुरु उन्हें मिले तो वो संन्यासी जी उनसे अनुमति प्राप्त कर डाक्टर साहब के शिष्य बने । ये ही स्वामी गंगा भारती जी के नाम से जाने जाते हैं । इनका राजगढ़ (अलवर) में अवधूत आश्रम नामक आश्रम है, वह आज भी मौजूद है । स्वामी जी भी देह त्याग चुके हैं । आश्रम में डाक्टर साहब की फोटो की सुबह-शाम घंटे-घड़ियाल के साथ आरती होती थी । डाक्टर साहब को जब यह बात मालूम हुई तो उन्होंने भारती जी से अप्रसन्नता जाहिर की और पूजा में से अपनी फोटो हटवा दी ।
  • भारती जी ने देखा कि यह विद्या वैरागियों की नहीं वरन् गृहस्थों की है तो उन्होंने श्रीमान से पूछा कि यदि आवश्यक हो तो मैं यह बाना बदल लूं और गृहस्थ बन जाऊं । श्रीमान ने आपको इसी भेष में रहकर संन्यासियों में भी इसका प्रचार करने की आज्ञा दी । भारती जी इस भेष में अपने शरीरान्त तक इस आज्ञा का पालन करते रहे । संन्यासी समाज में आपके इस नये प्रकार के अध्यात्म के प्रति बड़ा आदर है । सर 1977 में ही आप (बाबा जी) का 90 वर्ष की आयु में स्वर्गवास हुआ । सन् 1940 में एक बार श्रीमान के साथ मैं भी राजगढ़ गया । एक पंडित जी भी हमारे साथ गये । बाबा 'जी का व्यवसाय तो रहा मन्दिर की पूजा और हमारे इस अध्यात्म में मूर्ति-पूजा के लिए कोई स्थान ही नहीं, पर वे उसे छोड़ भी नहीं सकते थे क्योंकि उनके संन्यास देने वाले गुरु की उन्हें यह देन थी । श्रीमान की आज्ञा से वे मन्दिर की पूजा इस प्रकार करते थे जैसे हम सब गवर्नमेन्ट की नौकरी, दुकान, वकालत, डाक्टरी आदि करते हैं तथा अध्यात्म का अभ्यास तथा प्रचार उनका निजी कार्य था । यह अद्भुत समन्वय हमने और कहीं नहीं देखा । श्रीमान के साथ गृहस्थ अनुरूप हमारा भी स्वागत तथा सेवा सुश्रूषा हुई । बाबा जी आयु में श्रीमान से बड़े थे परन्तु हर समय सेवा में ऐसे खड़े रहते थे कि हमें तो अपने सामने उनको संन्यासी भेष में इस प्रकार अपने आप को प्रस्तुत करते देख लज्जा अनुभव होती थी ।
  • अजमेर में ही बस्वा (बांदीकुई) के एक पहुँचे हुए संत अर्जुनदासजी भी डाक्टर साहब के घर दर्शन के लिए आया करते थे । ये सब लोग कभी-कभी उनके आश्रम बस्वा जाते थे । वहाँ उन दिनों बहुत बाघ थे । वे सब अर्जुनदासजी की आज्ञा का पालन करते थे । बाबाजी जब हारमोनियम बजाते, तो टेकरी पर बने मन्दिर में चारों ओर बाघ उन्हें घेर कर बैठ जाते थे और अहिंसक हो जाते थे ।
  • जब डाक्टर साहब अजमेर में थे तो जयपुर के स्टेशन मास्टर अपनी फरियाद लेकर उनके पास पहुँचे । यह 1930 के आसपास की बात है । डाक्टर साहब उस समय जयपुर स्टेशन मास्टर के यहाँ आकर ठहरे भी थे । उनकी लड़की का विवाह लखनऊ में हुआ । खानदानी कोठी थी, वहाँ एक ब्रह्म राक्षस उस लड़की को सताया करता था । कभी गिरगिट बन कर तवे पर बैठ जाता कभी खाने की थाली में विष्ठा डाल देता । कभी दीवार में से केवल एक हाथ निकाल कर कहता कि तेरा बच्चा मुझे दे दे । कभी त्रिपुंडधारी कोपीनधारी ब्राह्मण के रूप में नजर आता । मकान पुश्तैनी था, इसलिए उसे छोड़ा भी नहीं जा सकता था । सोच-विचार कर डाक्टर साहब ने स्टेशन मास्टर साहब को कहा कि अपनी लड़की को लिख भेजे कि जब कभी वह ब्रह्मराक्षस दिखाई दे तो लड़की उसे यह कह दिया करे “अजमेर के डाक्टर कृष्ण स्वरूप ने तुम्हें सलाम भेजा है ।” उसने ऐसा कहा ही था कि ब्रह्मराक्षस वहाँ से गायब हो गया और उसे उससे मुक्ति मिली ।
  • अजमेर में आप जनरल इन्श्योरेन्स सोसाइटी में रेकॉर्ड कीपर हो गये । आपने प्राइवेट दवाखाना भी खोला, जहाँ आप सबेरे शाम बैठा करते थे । इसके बाद प्रिय सत्संगी भाई ठा॰ मूल सिंह जी, जो श्रीमान् कानपुरवासी पूजनीय चच्चा जी महाराज के शिष्य थे आपको आग्रह पूर्वक अजमेर से जयपुर ले आए ।
  • महात्मा आनंद भिक्षु जी
  • जब श्रीमान् डाक्टर साहब अजमेर में निवास करते थे तो एक बार श्री राम कृष्ण मिशन के उपदेशक महात्मा आनंद भिक्षु जी अजमेर में पधारे और उनके व्याख्यान होने लगे । उन्हें सुनने को आप भी जाया करते थे । महात्मा आनंद भिक्षु को यह पता लगा कि यहाँ भी एक बहुत बड़े संत निवास करते हैं तो आप श्रीमान् डॉ॰ साहब से मिलने गये । उसके पूर्व आपने कई प्रश्न वेदान्त और रूहानियत पर सोच लिये कि ये जाकर श्रीमान् डॉ॰ साहब से पूछेंगे । जैसे ही आनंद भिक्षु श्रीमान् के निवास स्थान पर पहुँचे तो कुशल प्रश्न के बाद इधर उधर की बातें करके एक-डेढ़ घंटे तक बैठ कर वापस चले गये और कोई प्रश्न आपसे नहीं पूछा । फिर जब वे अपने ठहरने के मुकाम पर गये तो ख्याल आया कि अरे ? मैंने तो उनसे कोई प्रश्न ही नहीं पूछा ।
  • दूसरे दिन सब प्रश्न कागज पर नोट करके ले गये । फिर भी श्रीमान् डॉ॰ साहब से कोई प्रश्न नहीं पूछा । तीसरे दिन वे केवल डॉक्टर साहब से यह करिश्मा होने का कारण पूछने को आए और आते ही बड़े ही नम्र भाव से पूछने लगे कि मैं परीक्षा लेने के लिये यह प्रश्न नहीं पूछना चाहता था । आपके शिष्य के रूप में जिज्ञासु की तरह पूछना चाहता था अतएव मुझे भी उपदेश दीजिये । श्रीमान् ने उनका संतोष किया । उनके जाने के बाद किसी शिष्य ने पूछा कि महात्मा आनंद भिक्षु जी प्रश्न क्यों नहीं पूछ पाए तो श्रीमान् डॉ॰ साहब ने कहा “हम पूछने देते तब न !”
  • एक बार पूजनीय डॉ॰ साहब के साथ कुछ लोग देहली गये, वहाँ परम संत निजामुद्दीन औलिया साहब की समाधि पर गये । जैसे ही समाधि के अहाते में पहुँचे, जोर का सन्नाटा सारे शरीर में महसूस होने लगा । समाधि पर पहुँचते पहुँचते तो लोग गिरने से लगे । जब तक समाधि पर बैठे रहे, अजीब कैफियत गुज़रती रही । उसके बाद सात दिन तक सभी की यह हालत रही कि मानो बिजली के करंट पर हाथ रक्खा हो । ऐसा सारे शरीर में झन्नाटा होता रहा । इसी प्रकार श्रीमान् के साथ उजैन, में मछंन्दरनाथ जी की समाधि पर भी शिष्य गण गये थे तो वहाँ भी आपने सब सत्संगियों को रूहानियत से फैज़याब कर दिया था ।
  • श्रीमान् डॉ॰ साहब का स्वभाव अत्यन्त सरल व विनोदी था । एक बार कुछ लोग आपके साथ बैल गाड़ी में बैठ कर मंडावल एक सत्संगी बन्धु के सुपुत्र के यज्ञोपवीत में जा रहे थे । रास्ते में कुछ दूरी पर जोर की दावाग्नि लगी हुई थी । आपने फ़रमाया कि “कहो तो हम इसे बुझा दें । “एक सत्संगी ने कहा-”बुझा दीजिये । जाने कितने पशु-पक्षी जल रहे होंगे ।” आपने उसी वक्त उंगली का इशारा किया और दावाग्नि बुझ गई । आप अत्यन्त परदुःख कातर थे । किसी दुखिया की आवाज आप फौरन सुनते थे । और जी जान से उसकी सहायता करने को जुट जाते थे । आपकी दुआ से और बुजुर्गान की मेहरबानी से श्री भूल सिंह जी पर डाला गया झूठा कत्ल का मुकदमा समाप्त हो गया ।
  • सेवकों पर तो अनेक विपत्तियाँ आईं । वे सब आपकी दुआ से ही दूर हुई । श्रीमान डॉ॰ साहब इतने उच्च कोटि के सन्त थे तो भी अपने आपको इस खूबी से छिपा कर रखते थे कि कोई जान भी नहीं पाता था कि आप इतने बड़े हैं । आप गुदड़ी के लाल थे ।
  • आपकी शिक्षा
  • आप में गुरुडम बिल्कुल नहीं था । न आप किसी से कुछ इच्छा रखते थे । जो खुशी से भेंट करता था उसे भी अनिच्छा पूर्वक ग्रहण करते थे । ग़रीबों की भेंट तो आप केवल हाथ से स्पर्श करके लौटा देते थे । अजमेर व जयपुर में जब आप दवाखाना चलाते थे तो आपने कभी किसी से फीस नहीं ली ओर न दवाइयों के पैसे माँगे । जो चाहे दे, न चाहे न दे । इस प्रकार जयपुर व अजमेर में आपके दवाइयों के हज़ारों रुपये डूब गये परन्तु आपने कोई शिकायत या पछतावा नहीं किया । आपका जीवन इतना सादा था कि उसमें दिखावा या बनावट का कोई स्थान ही न था । आपका उपदेश हमेशा यह रहता था कि जबानी जमा खर्च से काम नहीं चलेगा । मानव का जीवन अमली (Practical) होना चाहिये । आप समय के सदुपयोग पर बहुत जोर देते थे । बेकार कामों में समय बिताना आप अनुचित समझते थे । संयम पूर्ण जीवन व्यतीत करने पर भी आप अधिक बल देते थे । मन को वश में करने का आप यह सरल उपाय बताया करते थे कि मन जब कोई चीज माँगे उसे न दो । वह अपने आप ठीक राह पर आ जायेगा ।
  • आपके उपदेश की यह विशेषता थी कि साधक की जिस प्रकार की दिली या रूहानी हालत होती थी उसको वैसा ही अभ्यास बताया करते थे । फिर धीरे-धीरे उसको ठीक राह पर लाते थे । जो सत्संगी कर्मकांड के प्रेमी होते थे उनको आप कर्मकांड में लगा देते थे । जिसे करते करते साधक की वृत्ति बहिर्मुखी से अन्तर्मुखी वृत्ति हो जाती थी । वह कर्मकांड पर से उपासना पर आ जाता था । आपके कई पण्डित शिष्यों को आपने गायत्री मंत्र का जाप करने की आज्ञा दी परन्तु साधक जब संध्या वंदन करके गायत्री जाप करने बैठता था तो आधी माला भी पूरी नहीं कर पाता था कि समाधि लग जाती थी । इस प्रकार की आप रूहानी तालीम देते थे । आपके प्रभाव में आकर कई शराबियों ने शराब छोड़ दी । आपने कभी यह नहीं फ़रमाया कि तुम शराब पीना छोड़ दो । आपका तो यह विश्वास था कि तुम चाहो जितनी शराब पिओ हम में ताकत होगी तो हम छुड़ा देंगे । इस तरीके से आपने हज़ारों गिरे हुए जीवों का उद्धार किया ।
  • जब आपका निवास जयपुर में था तो आपकी सेवा में कई राजा, जागीरदार वकील, प्रोफेसर, कलक्टर, डाक्टर व जज सत्संग के लिए हाजिर हुआ करते थे । एक बार जो आपके पास आकर बैठ गया वह आपकी बातों को सुन कर इस प्रकार आकर्षित हो जाता था कि उसकी आपके पास से उठ कर जाने की तबियत नहीं चाहती थी । एक बार आपके दर्शन कर लेने पर आपकी बातें सुन लेने पर बार बार आपके पास जाकर आपकी बातें सुनने को तबियत चाहती थी । एक स्थान पर जिक्र आया है कि हर कदम पर आप 60 मंत्रों का पाठ करते हुए चला करते थे ।

Find out more