जीवन चरित्र
जन्मभूमि और माता-पिता
- भारतवर्ष में उत्तर प्रदेश राज्य के जिला फर्रुखाबाद में एक तहसील कायमगंज है । इसी तहसील के कस्बा रायपुर में हुज़ूर महाराज का जन्म 1847 ई॰ में हुआ था । यहीं आप का पालन-पोषण हुआ तथा कुछ वर्षों को छोड़ कर, जबकि वह जीविकोपार्जन के लिए फर्रुखाबाद में रहे, आप का अधिकांश जीवन यहीं रायपुर में ही व्यतीत हुआ । जीवन काल के अन्तिम समय में इसी स्थान पर आपने विसाल फ़रमाया (पार्थिव शरीर त्याग दिया) ।
- आपके पूज्य पिताजी का शुभ नाम ज़नाब गुलाम हुसैन साहिब था, जो कश्मीर के महान सूफ़ी सन्त हज़रत मौलाना वलीउद्दीन साहिब (रहम॰) से बैअत थे (गुरु दीक्षा ली थी) और उनके खलीफ़ा भी थे । वह फौज में 'निशान बरदार' के पद पर कार्यरत थे ।
- हुज़ूर महाराज की पूज्य माताजी हज़रत मौलाना अफ़जल शाह नक़्शबन्दी मुजद्दिदी (रहम॰) से बैअत थीं । हजरत मौलाना शाह साहिब जो मौलाना अबुल हसन नसीराबादी (रहम॰) के मुरीद व खलीफ़ा थे बड़ी मुहब्बत से पूज्य माताजी के क़ल्ब (हृदय) की तरफ तवज्जोह देते थे और उनके विषय में फ़रमाते थे कि मेरी बेटी 'मशीयते एज़दी' तब्दील कर देती है (वह ईश्वर की इच्छा और उसका विधान भी बदलने की क्षमता रखती है) । विश्व के विभिन्न धर्मों में ऐसी घटनाएं सुनने और देखने को मिलती हैं जहाँ ईश्वर अपने परम भक्तों की फरियाद (विनती) और आग्रह को स्वीकार करने के लिए वह अपना दैवी विधान भी बदल देता है ।
- इसी सन्दर्भ में हुज़ूर महाराज की पूज्य माताजी की परम भक्ति और ईश्वर प्रेम के विषय में एक भजन की निम्नांकित पंक्तियाँ याद आती हैं -
- प्रबल प्रेम के पाले पड़ कर, प्रभु को नियम बदलने देखा ।
उनका मान घटे घट जाये, जन का मान न टलते देखा ।।
- पूज्य माताजी इन्तिहा दर्जे की नेक, पारसा (संयमी) और सीधी थीं । उनके स्वभाव में अपने-पराये की भावना छू तक नहीं गई थी और 'वसुधैव कुटुम्बकम्' (सारा विश्व ही कुटुम्ब के समान है) - इस सिद्धांत को उन्होंने अपने जीवन में पूर्ण रूप से उतार लिया था । उनके स्वभाव के इस अलौकिक गुण की प्रशंसा करते हुए हुज़ूर महाराज के गुरु भाई हजरत मौलाना हाज़ी अब्दुल ग़नी खाँ साहिब अपनी एक घटना सुनाया करते थे । एक दिन हुज़ूर महाराज के छोटे भाई हज़रत मौलवी विलायत हुसैन खाँ साहिब और हज़रत मौलाना हाज़ी अब्दुल ग़नी खाँ साहिब दोनों एक परीक्षा में सम्मिलित होने के लिए जाने लगे । दोनों ने अलग-अलग पूज्य माताजी से अर्ज़ किया, 'माई, मेरे लिए दुआ कीजिएगा' । उन्होंने फ़रमाया, 'अच्छा- इन्शा अल्लाह मैं दुआ करूंगी' । जब दोनों परीक्षा देकर वापस आये तो पहले ज़नाब हाजी अब्दुल ग़नी खाँ साहिब ने दरियाफ़्त किया- माई ! क्या आपने मेरे लिए दुआ की थी ? उन्होंने फ़रमाया, 'हाँ मैंने तेरे लिए दुआ की थी', लेकिन जब उनके लड़के हुज़ूर महाराज के छोटे आई साहिब ने उनसे दरियाफ्त किया तो उन्होंने साफ बतला दिया कि जब मैं तेरे लिए दुआ करने को होती तो तेरी जगह उसका (ज़नाब हाज़ी अब्दुल ग़नी खाँ साहिब का) नाम मेरी ज़ुबान पर आ जाता था । इसलिए मैं उसके लिए तो दुआ करती रही लेकिन तेरे लिए दुआ करना भूल गई । यह थी उनके प्रेम की व्यापकता कि अपने सगे लड़के के लिए दुआ करना भूल गईं, लेकिन ज़नाब हाज़ी अब्दुल ग़नी खाँ साहिब के लिए बराबर दुआ करती रहीं जिनको वह अपने सगे लड़के से ज्यादा प्यार करती थीं ।
- उक्त तथ्यों से यह स्पष्ट होता है कि हुज़ूर महाराज के पूज्य माता-पिता दोनों ही परम सन्त तथा उच्च कोटि का आध्यात्मिक जीवन व्यतीत करने वाले आदर्श मानव थे । उनकी पूज्य माताजी परम सन्त होने के साथ ही साथ श्रेष्ठ मानवता की जीवन्त प्रतिमूर्ति ही थीं । अत: इसमें कोई सन्देह नहीं कि ऐसी परम सन्त आदर्श माता की कोख से जन्में हुज़ूर महाराज ने धार्मिक एवं साम्प्रदायिक एकता तथा सर्व धर्म समन्वय के क्षेत्र में जिस नूतन आध्यात्मिक क्रान्ति का सूत्रपात किया, वह उनके परिवार के उत्कृष्ट आध्यात्मिक संस्कारों के अनुरूप ही था ।
- हुज़ूर महाराज के पूज्य सत गुरुदेव
हज़रत खलीफ़ा अहमद अली खाँ साहिब (रहम॰)
- कायमगंज जिला फर्रुखाबाद (उ.प्र.) में एक महान सूफी सन्त हज़रत खलीफ़ा अहमद अली खाँ साहिब मऊरशीदाबादी कायमगंजी (रहम॰) निवास करते थे । कायमगंज को पुराने समय में मुऊरशीदाबाद कहते थे । इसलिए ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब (रहम॰) के नाम के आगे मऊरशीदाबादी भी लिखा जाता है ।
- आप फारसी और अरबी के महान विद्वान थे और इन भाषाओं के कठिन से कठिन ग्रन्थ आपको कंठस्थ थे । आप फारसी के काव्य ग्रन्थ 'गुले क़िश्ती', 'बदरचाह', 'मसनवी हलाली' इत्यादि को बड़े रोचक ढंग से पढ़ाते थे । धर्मशास्त्र और शरीअत से सम्बन्धित तथ्यों की व्याख्या करने में आपको पूर्ण दक्षता हासिल थी । क़ुरआन शरीफ को शुद्ध उच्चारण के साथ पढ़ने की कला में भी आप पूर्ण दक्ष थे । इस विषय पर आपने कई पुस्तिाकाएँ लिखी हैं । आपने दो दीवान (कविताओं के संग्रह) और एक काव्य ग्रन्थ 'महारबा काबुल' लिखा है । गद्य लेखन में भी आप की योग्यता अद्वितीय थी । आपने एक पुस्तक 'फ़तवाए अहमदी' लिखी है । आप धर्म पालन में बड़े सख़्त और सुन्नत (वह कार्य जो पैगम्बर साहिब सल्ल॰ ने किया हो) के अनुयायी थे । आप अक्सर फ़रमाते थे कि सुन्नत का अनुकरण करने से आदमी महबूब (ईश्वर और हज़रत पैगम्बर साहिब सल्ल॰ का प्रेम पात्र) हो जाता है ।
- ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब के पास जो लड़के पढ़ने आते थे उनमें हुज़ूर महाराज भी थे जो बहुत ही तीव्र बुद्धि के तथा आज्ञाकारी स्वभाव के थे । ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब के परिवार में केवल उनकी धर्मपत्नी और उबका एक लड़का था जिसका नाम अब्दुला था । जब यह लड़का 15-16 वर्ष का हुआ तो अचानक उसकी मृत्यु हो गई । इस विरह से सब को बड़ा दुःख हुआ, विशेष रूप से लड़के की माँ को । वे दिन-रात उसकी याद में रोया करती थीं । एक दिन ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब ने अपनी पत्नी को समझाया कि रोने से कुछ फायदा नहीं, जिस हालत में परमात्मा ने रखा है, उसमें खुश रहो । वह बोलीं, 'मैं बहुत कोशिश करती हूँ मगर सब्र नहीं आता, बराबर उसकी याद आ-आकर रुलाती है ।' आपने कहा, 'तुम फज़्लू (हुज़ूर महाराज) को ही अपना बेटा क्यों नहीं समझ लेती?' बस ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब की यह बात सुनते ही उनकी धर्मपत्नी के दिल की कुछ ऐसी कैफियत हो गई कि वह उसी दिन से हुज़ूर महाराज को अपना बेटा मानने लगीं और हुज़ूर महाराज भी उनको अपनी सगी माँ मानने लगे । यह भी एक संयोग की बात थी कि ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब के पुत्र 'अब्दुल्ला' हुज़ूर महाराज के हम शक्ल थे (दोनों की शक्ल एक-सी थी) । यह जानकारी इस लेखक को हुज़ूर महाराज के सगे पोते पूज्य ज़नाब शाह मंज़ूर अहमद खाँ साहिब ने अपने एक पत्र में देने की कृपा की थी ।
- परम पूज्य ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब की धर्मपत्नी के विषय में पूज्य चच्चा जी महाराज ने एक बार कानपुर सत्संग के अवसर पर हुज़ूर महाराज के जीवन की कुछ घटनाएं सुनाते हुए यह फ़रमाया था कि ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब अपने विसाल के वक्त अपनी धर्मपत्नी को हुज़ूर महाराज के ही सुपुर्द कर गये थे । वह उनके शरीरान्त के बाद वहीं कायमगंज में अपने नवासों के यहाँ रहने लगी थीं । यद्यपि उनके नवासों की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी थी लेकिन वह उनके मकान के सामने ही एक फूस की झोंपड़ी डलवा कर रहती थीं । उनके भोजन, वस्त्र आदि की व्यवस्था हुज़ूर महाराज ही अपनी ओर से करते थे । उनके लिए सतनजा अनाज खरीद देते थे (जो उनको पसन्द था) और छठे महीने में उनके लिए कपड़े बनवा देते थे । वह इतना सादा भोजन करती थीं कि उस सतबजा अनाज की खुश्क रोटियाँ ही अक्सर खा लेती थीं । साथ में कोई सब्जी और दाल भी नहीं लेती थीं । परम पूज्य ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब की धर्मपत्नी के विषय में पूज्य चच्चाजी महाराज का उक्त कथन इस लेखक को उनके शिष्य श्रीमान बृजनारायण जी मेहरोत्रा की दैनिक डायरी दिनांक 13-11-42 में पढ़ने को मिला था । जब तक वह जीवित रहीं हुज़ूर महाराज एक सगे पुत्र की तरह उनकी सेवा बड़ी निष्ठा के साथ करते रहे ।
- ज़नाब खलीफ़ा जी के स्वभाव में बेहद परदापोशी थी । कायमगंज के लोग उन्हें फ़ारसी और अरबी पढ़ाने के लिए एक विद्वान मौलवी शिक्षक के रूप में तो जानते थे और यह भी जानते थे कि वह सज्जन और ईश्वर भक्त हैं । लेकिन लोगों को यह नहीं मालूम था कि ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब सांसारिक विद्याओं के साथ ही साथ अध्यात्म विद्या के भी अथाह समुद्र हैं । हुज़ूर महाराज ने ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब का संक्षिप्त जीवन-वृतान्त तथा उनके उच्चतम आध्यात्मिक जीवन की कुछ घटनाएँ एक पुस्तिका में प्रकाशित की हैं । इस पुस्तिका का नाम है-'जमीमा हालात मशायख़ नक़्शबन्दिया, मुज़द्दिदिया, मज़हरिया' जो हुज़ूर महाराज द्वारा उर्दू भाषा में लिखी गई है । इस ज़मीमा के विषय में हुज़ूर महाराज ने इसकी भूमिका में लिखा है कि शुरु में आपका इरादा नक़्शबन्दिया सिलसिले की गुरु परम्परा के हालात, जो आपने एकत्र किये थे, छपवाने का था । उसी बीच आपको यह मालूम हुआ कि एक बहुत ही उपयुक्त पुस्तक 'हालात मशायख़ नक़्शबन्दिया मुज़द्दिदिया' मौलाना मुहम्मद हसन साहिब (निवासी कोटा, कीरतपुर, जिला बिजनौर) ने लिखी है । अत: उन्होंने अपनी पुस्तक छपवाने की जरूरत नहीं समझी, परन्तु उस पुस्तक में नक़्शबन्दिया सिलसिले के शज्रः (गुरु परम्परा की वंशावली) के अनुसार तीन महापुरुषों के हालात नहीं थे । अत: उन्होंने उक्त जमीमा परिशिष्ट के रूप में प्रकाशित किया जिसमें इन तीन महापुरुषों के हालत लिखे हुए हैं :- हज़रत मौलाना मौलवी शाह मुरादुल्लाह (कु॰सि॰), हज़रत सैयद अबुल हसन साहिब नसीराबादी (कु॰सि॰) और हजरत सैयद खलीफ़ा अहमद अली खाँ साहिब मऊरशीदाबादी (कु॰सि॰) । इस प्रकार मौलाना मुहम्मद हसन साहिब द्वारा लिखित पुस्तक तथा हुज़ूर महाराज द्वारा रचित जमीमा इन दोनों पुस्तकों को एक साथ मिला कर पढ़ने से नक़्शबन्दिया सिलसिले के सभी महापुरुषों के हालात शज्रः शरीफ के मुताबिक क्रमवार हज़रत पैगम्बर मोहम्मद साहिब (सल्ल॰) से लेकर हजरत खलीफ़ा अहमद अली खाँ साहिब (रहम॰) तक मिल जाते हैं ।
- ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब ने नौ रबी उल अव्वल तेरह सौ सात हिजरी बरोज़ दो शम्बा विसाल फ़रमाया । आपकी पवित्र मज़ार गुजरी नूरखाँ व कुबेरपुर (कायमगंज) के नज़दीक जो कब्रिस्तान नन्दू खाँ का मशहूर है, वहाँ मस्जिद के निकट स्थित है । ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब के पुत्र अब्दुल्ला की कब्र खलीफ़ा जी साहिब की मजार शरीफ के बराबर बनी है । इससे मिली हुई पूर्व दिशा में बव्वाजी (पूज्य खलीफ़ा जी साहिब की धर्मपत्नी) की है । पूज्य खलीफ़ा जी साहिब के पाँइती में कच्ची कब्र आपके नवासे जवाब अली शेर खाँ साहिब की है जो हुज़ूर महाराज के खलीफ़ा थे ।
- परम पूज्य ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब की मज़ार शरीफ़ शुरु में कई वर्षों तक मिट्टी तथा पुरानी ईटों से बनी हुई हालत में रही । बाहर से आने वाले सत्संगी भाइयों को उनकी मज़ार शरीफ़ को ढूंढ़ने में बड़ी असुविधा होती थी क्योंकि वहाँ मज़ार पर कोई ऐसा निशान अथवा ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब का नाम भी नहीं लिखा हुआ था । इस असुविधा को दूर करने के लिए हुज़ूर महाराज के पौत्र ज़नाब शाह मंज़ूर अहमद खाँ साहिब ने उस मज़ार को पुख्ता बनवाने का इरादा किया ।
- उन्होंने ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब की मज़ार शरीफ़ की तामीरात (निर्माण कार्य) के लिए मिस्त्री जिसका नाम मुअज्ज़म खाँ था नियुक्त किया, वह पक्के नमाज़ी और शरीअत के पाबन्द थे । वह बावुज़ू (पवित्र) होकर कार्य करते थे । उक्त मज़ार शरीफ़ का चबूतरा तामीर (निर्मित) होने के बाद जब उसकी ताबीज बना रहे थे तो उस मज़ार के अन्दर से उन्हें यह आवाज सुनाई दी, 'मियाँ ! क्या कर रहे हो ? फ़क़ीर तो गुमनाम ही रहा करते हैं ।' बस यह आवाज़ सुन कर वह वहाँ से उठे और ज़नाब मंज़ूर अहमद खाँ साहिब के पास आये और बोले, 'मौलाना साहिब, यह एक ज़िन्दा वली की मज़ार है । मुझे इस तरह की आवाज सुनाई दी है कि फ़क़ीर तो गुमनाम ही रहा करते हैं ।' अब आप क्या कहते हैं ? यह काम मेरी हिम्मत के बाहर है ।
- मियाँ मुअज्ज़म की ऊपर लिखित बात का ज़नाब शाह मंज़ूर अहमद खाँ साहिब ने जो जवाब दिया तथा इस विषय में उन्होंने ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब से जो दुआ की उसके बारे में यह लेखक उन्हीं के शब्दों में लिख रहा है- 'मैंने उनको (मियाँ मुअज्जम को) तसल्ली देकर कहा, अब मैं हजरत साहिब से (पूज्य खलीफ़ा जी साहिब से) अपने मुर्शिद के वास्ते से अर्ज करता हूँ । आप भी मेरे हक में सिफारिश करें । इस ख़ादिम बे अपने पीरो मुर्शिद हजरत मौलाना अल्हाज़ शाह अब्दुल ग़नी खाँ आफ़रीदी नक़्शबन्दी, मुजद्दिदी, मज़हरी, नईमी, फ़ज़्ली (रहम॰) के वास्ते से यह अर्ज़ किया कि, 'या हज़रत ! यह सच है कि फ़क़ीर गुमनाम ही रहा करते हैं, मगर हम जैसे बन्दे गुनहगार किस तरह से आपके यहाँ हाज़िरी दे सकें । आप का मज़ार शरीफ़ आम कब्रिस्तान में है । हम भूल जाते हैं (उसको पहचानने में); इसलिए सिर्फ़ निशान चाहते हैं ताकि मुझको व दीगर आने वाले भाइयों को हाज़िरी देने में आसानी हो । यह मेरी दिली ख़्वाहिश है । उसे आप कबूल फ़रमायें और हम सब पर निगाहें करम हमेशा बनायें रखें । खुदा का शुक्र है कि आज वहाँ छत पड़ गई है और चार दिवारी हो गई है-वर्ना धूप और गोखरू (काँटे) इस क़दर थे कि एक कदम चलना या दस मिनट वहाँ बैठ कर फातेहा पढ़ना कठिन था ।'
- एक वाक़या इस ग्रन्थ के लेखक ने अपनी दैनिक डायरी दिनांक 2-4-53 में अभी हाल ही में पढ़ा जो परम पूज्य ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब (रहम॰) की मजार से सम्बन्धित है । इसका उल्लेख यह सेवक अपनी डायरी में लिखे हुये शब्दों में ही इस प्रकार कर रहा है:- दिनांक 2-4-53 को कायमगंज स्टेशन से उतर कर हम लोग पहले परदादा गुरु महाराज (परम पूज्य ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब रहम॰) की पवित्र समाधि के लिए रवाना हुए । रास्ते में पूज्य मेहरोत्रा साहिब ने (श्रीमान बृजनारायण जी मेहरोत्रा जो पूज्य चच्चाजी महाराज के शिष्य थे) मुझसे और श्रीमान ईश्वर दत्त जी शर्मा से फ़रमाया कि हम लोगों को एकदम चच्चाजी में फ़ना होकर परदादा गुरु महाराज के सामने हाजिर होना चाहिए । इतनी बड़ी हस्ती के सामने बिल्कुल चच्चाजी महाराज में फ़ना होकर चलना बहुत ही जरूरी है । जब हम लोग नजदीक पहुँचे, मुझको अन्दर से इस बात का खौफ लग रहा था कि उनके सामने कोई गैर ख्याल न आ जाये । बस ज्यों ही मैं उनके सामने पहुँचा, एकदम आँखों में आँसू आ गये और मैं रो पड़ा । पूज्य मेहरोत्रा साहब और श्रीमान शर्मा जी भी रो पड़े । कुछ मिनटों के बाद हम लोग वहीं जमीन पर बैठ गये । पूज्य परदादा गुरु महाराज की समाधि में कुछ पुरानी ईटें लगी हुई थीं । कोई नया आदमी तो उसको पहचान ही नहीं सकता था । उस समय कड़ी धूप थी और जमीन काफी तप रही थी लेकिन वहाँ जहाँ हम लोग बैठे हुए थे एक अजीब वातावरण पैदा हो गया । फौरन ठंडी हवा चलती हुई महसूस हुई । उस जमीन पर गोखरू और कांटे पड़े हुए थे लेकिन ज्यों ही हम लोग वहाँ बैठे वह जमीन एकदम गद्दे की तरह मुलायम और ठंडी मालूम होने लगी । हम लोग थोड़ी देर पूजा करने के बाद उठे । हुज़ूर महाराज के पौत्र परम पूज्य शाह मंज़ूर अहमद खाँ साहिब हम लोगों के साथ थे । उन्होंने उस जमीन की मिट्टी हम लोगों को दी और फ़रमाया कि इस मिट्टी में भी बहुत असर है । उन्होंने प्रसाद के बताशे हम लोगों को दिए ।
- ज्यों ही हम लोग वापस चलने को हुए कि एक बुढ़िया आकर खड़ी हो गई और परदादा गुरु महाराज का नाम लेकर कहने लगी कि क्या उनकी मजार पर आये हो । ज़नाब शाह मंज़ूर अहमद खाँ साहिब ने फ़रमाया कि जी हाँ । उन्होंने उस बुढ़िया से परदादा गुरु महाराज के खानदान वालों के बारे में पूछा तो उसने कहा कि हाँ इसी सरईयाँ मुहल्ले में रहते हैं उनके नवासे के लड़के । हम लोगों ने पूछा क्या वह अभी घर पर होंगे ? उसने कहा, हाँ जरूर मिलेंगे । औरतें तो होंगी ही । हम लोग उस घर में पहुँचे जहाँ उस समय परदादा गुरु महाराज (पूज्य ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब) के नवासे के लड़के रहते थे । उस समय घर में कोई मर्द तो थे नहीं । खेतों में शायद चले गये थे । औरतें थीं । हम लोग उस महान पवित्र कोठरी में गये जहाँ परदादा गुरु महाराज ने बरसों खुदा की इबादत की थी । वहाँ पहुँचते ही हम लोगों को एक ऐसी अपूर्व शान्ति का अनुभव हुआ जो वर्णन के परे थी ।
- उक्त घटना के अलावा एक घटना की जानकारी ज़नाब मंज़ूर अहमद खाँ साहिब (हुज़ूर महाराज के पोते) ने अपने एक पत्र में इस लेखक को दी थी, जो उन्हीं के शब्दों में दी जा रही है-
- 'इस ख़ादिम ने उस कोठरी का दीदार किया है (जहाँ ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब ने बरसों इबादत की थी) बड़ी पुर रौनक जगह है । मेरी मुलाकात मजार शरीफ की तामीर (निर्माण) के वक्त ज़नाब अली शेर खान साहब के दामाद नजर मुहम्मद खान साहब से हुई थी । वह मुझे घर ले गये थे । यह मुलाकात 12-4-75 को हुई थी । एक बार मेरे साथ में मेहरोत्रा साहिब (श्री बृजनारायण मेहरोत्रा) व पूज्य श्रीमान् बाबू भोला नाथ भल्ले साहब एस॰पी॰ (पुलिस अधीक्षक); ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब की खानकाह में (कोठरी में) गये थे । वह जगह ऐसी थी कि हम लोग हैरान रह गये यानी वहाँ पर इतना तेज ज़िक्र हो रहा था जो हम लोगों को बरदाश्त नहीं हो रहा था । एक खास बात वहाँ घरवालों ने बताई कि अगर किसी बच्चे को रोना (चीख) लग जाये या कोई नज़र का असर हो जाये तो उस मरीज़ को उस कोठरी में डाल दें तो वह मरीज या बच्चा फौरन ठीक हो जाता है । घरवालों ने (ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब के नवासे के दामाद ने) ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब का एक जोड़ा कपड़ा व जानमाज भी हम लोगों को दिखाया था ।
- परम पूज्य ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब (रहम॰) की पैदल सफ़र करने की असीम सामर्थ्य का जिक्र करते हुए हजरत मौलवी हाजी अब्दुल ग़नी खाँ साहिब (रहम॰) ने कानपुर में सत्संगी भाइयों को एक घटना दिनांक 14-11-42 को सुनाई थी जो इस प्रकार है - एक दफ़ा ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब किसी साहब से मिलने के वास्ते कायमगंज से फर्रुखाबाद हुज़ूर महाराज को साथ लेकर रवाना हुए, मगर फर्रुखाबाद पहुँचने पर पता चला कि वह साहब कायमगंज गये हुए हैं । आप फौरन वहाँ से लौट पड़े और फर्रुखाबाद से कायमगंज गये । वहाँ पता लगा कि वह लखनऊ गये हुए हैं । आप फौरन ही वहाँ से लौटे और फर्रुखाबाद पहुँचे । ज़नाब हुज़ूर महाराज ने सोचा कि शायद यहाँ ठहर कर आप फिर चलेंगे । मगर ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब वहाँ भी न रुके । हुज़ूर महाराज ने आप से अर्ज किया कि साहिब मैं तो यह समझता था कि कहीं आप ठहर जायेंगे । आपने फ़रमाया, अच्छा तुम मेरे पीछे यह दो अल्फ़ाज (शब्द) कहते हुए चले आओ । खुदा चाहेगा तो तुम्हें थकान महसूस न होगी । अत: ऐसा ही हुआ । एक मस्जिद पर पहुँच कर आपने कुएँ से पानी भरा और वुज़ू वगैरह से फरागत होकर आपने हुज़ूर महाराज के वास्ते पानी रख दिया और आकर उनके पैर दबाने बैठ गये । हुज़ूर महाराज थक तो गये ही थे, इसलिए आकर लेटे हुये थे । आपने जब अपने गुरु महाराज (ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब) को देखा कि वह उनके पैर दबा रहे हैं तो फौरन उठ कर बैठ गये और मुआफ़ी माँगने लगे । ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब ने फ़रमाया कि भाई तुम थक गये होंगे, इस वास्ते तुम्हारे पैर दबाने लगा हूँ । हुज़ूर महाराज ने अर्ज किया कि मैं थका नहीं हूँ । आपने फ़रमाया कि अगर थके न होते तो नमाज पढ़ लेते । हुज़ूर महाराज फौरन उठे और वुज़ू के वास्ते कुएँ से पानी भरने के लिए चले, तो ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब ने फ़रमाया कि मैं तुम्हारे वास्ते पानी पहले ही भरकर रख आया हूँ । हुज़ूर महाराज ने अपने हाथ-मुँह धो कर नमाज अदा की ।
- एक बार हुज़ूर महाराज के गुरु भाई मौलाना शाह हाजी अब्दुल ग़नी खाँ साहिब (रहम॰) ने कानपुर में सत्संगी भाइयों से ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब (रहम॰) की शक्ल, सूरत और डील-डौल के विषय में फ़रमाया था कि, 'ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब नाटे, दोहरे बदन के और गंदुमी रंग के थे । आपका चेहरा मय दाढ़ी के बिलकुल गोल था । आप पठान थे ।' जितने भी काबुली पठान हैं मय अमीर काबुल के खानदान के सब के सब इसी सिलसिले के हैं ।
- हुज़ूर महाराज की शिक्षा और जीविकोपार्जन
- हुज़ूर महाराज ने मिडिल स्कूल परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की । इसके पश्चात नार्मल ट्रेनिंग में प्रवेश लिया । वहाँ की परीक्षा भी प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की । उन्होंने अरबी और फारसी की तालीम हजरत ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब से हासिल की जो उनके पूज्य गुरुदेव भी थे । उस जमाने में नार्मल ट्रेनिंग करने के बाद फौरन ही डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के स्कूलों में अध्यापक के पद पर नियुक्ति हो जाती थी । परन्तु हुज़ूर महाराज ने इस ख़्याल से कि उन्हें अपने पूज्य गुरुदेव (हजरत ज़नाब खलीफ़ा जी साहिब) की सेवा से वंचित होना पड़ेगा, डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के स्कूलों में अध्यापक पद पर जाना स्वीकार नहीं किया और आजीवन अपने पूज्य गुरुदेव के निकट सम्पर्क में रहते हुए उनकी सेवा में लगे रहे । हुज़ूर महाराज खाली समय में मुहल्ले तथा क़स्बे के लड़कों को उर्दू फारसी की शिक्षा देते थे । उनमें से अधिकांश लड़के तो गरीब परिवारों के होते थे । अत: हुज़ूर महाराज उन्हें बड़े प्रेम से निःशुल्क शिक्षा देते थे । केवल कुछ अच्छे परिवारों के लड़के जो कुछ भी श्रद्धा पूर्वक पारिश्रमिक के रूप में हुज़ूर महाराज को दे देते, उसे वह सहर्ष स्वीकार कर लेते और उसी में अपनी गुजर-बसर करते । हुज़ूर महाराज ने अपने जीविकोपार्जन की एक नसीहत आमेज़ (शिक्षाप्रद) घटना अपनी पुस्तक 'जमीमा हालात मशायख नक़्शबन्दिया' में लिखी है, जो उन्हीं के शब्दों में नीचे अंकित की जा रही है –
- ''एक बार मैं बेकार हो गया था और दसवीं तारीख माह दिसम्बर की थी । आपने (हजरत खलीफ़ा जी साहिब ने) मुझसे दरियाफ्त किया-किस क़दर तनख्वाह में (कितने वेतन में) तुम्हारी गुजर हो जायेगी? मैंने अर्ज किया कि हजरत, पाँच रुपया माहवारी अलावा खुराक के वास्ते दुआ कीजिएगा । हजरत ने जरा से तअम्मुल (विचार) के बाद फ़रमाया कि तुम पहली दिसम्बर से इस तनख्वाह पर नौकर हो गये । यह सुन कर मुझे यकीन न हुआ । फिर हजरत ने फ़रमाया कि तुझे यह बात झूठी मालूम हुई ? मैंने अर्ज किया कि हजरत सच होगी, मगर दसवीं तारीख तक मुझे खबर न हो, यह कैसी बात है । उस वक्त हजरत खलीफ़ा जी साहिब ने बन्दा को नसीहत की कि, अपने मक्शूफात को (गुप्त बातों को जो आध्यात्मिक साधना से प्रकट होने लगती हैं) सब लोगों से छिपाना चाहिए । देखो, तुम-सा मुरीद मुख्लिस (निष्ठावान शिष्य) भी यकीन नहीं करता तो फिर औरों से क्या उम्मीद हो ? जब मैं हजरत से जुदा हुआ तो उसी वक्त अपनी नौकरी का हाल मालूम हो गया कि मुन्शी बद्रीप्रसाद वकील ने जराद में नौकर करा दिया है । उसी वक्त अपने काम पर गया और बीस रोज बाद पूरी तनख्वाह पायी (पहली दिसम्बर से 31 दिसम्बर तक का पूरा वेतन प्राप्त किया ।)''
- जैसा कि ऊपर निवेदन किया जा चुका है कि हुज़ूर महाराज खाली समय में मुहल्ले तथा क़स्बे के लड़कों को उर्दू फारसी की शिक्षा प्रदान करते थे । जब वह वृद्ध हो चले और उनकी आर्थिक स्थिति ठीक न रहने लगी तो उन्होंने फर्रुखाबाद के मिशन स्कूल में उर्दू, फारसी की शिक्षा देने के लिए अध्यापक के पद पर कार्य करना स्वीकार कर लिया । फर्रुखाबाद में हुज़ूर महाराज ने मुफ्ती साहब के मदरसे के नजदीक रहने के लिए एक कोठरी ले रखी थी । यहाँ भी वह फुर्सत के समय मदरसे के लड़कों को उर्दू, फारसी और अरबी की तालीम देते थे । यहाँ पर हुज़ूर महाराज के परम शिष्य महात्मा रामचन्द्र जी महाराज प्रथम बार उनके सम्पर्क में आये । (इस घटना का विस्तृत विवरण अगले अध्याय में दिया जा रहा है ।) महात्मा रामचन्द्र जी महाराज के साथ ही धीरे-धीरे कई हिन्दू सत्संगी भाई हुज़ूर महाराज की सेवा में उपस्थित होकर उनसे रूहानियत की तालीम (आध्यात्मिक शिक्षा) ग्रहण करने लगे । फर्रुखाबाद के कुछ रूढ़िवादी और कट्टरपंथी मुसलमानों को हुज़ूर महाराज का यह उदार दृष्टिकोण पसन्द न आया । अत: उन लोगों ने हुज़ूर महाराज को विभिन्न प्रकार से परेशान करना आरम्भ कर दिया । हुज़ूर महाराज बड़े ही निर्भीक और उदार दृष्टिकोण वाले महापुरुष थे । वह ऐसे संकीर्ण और रूढ़िवादी मुसलमानों की आलोचना और विरोध की परवाह न करते हुए हिन्दुओं और अन्य धर्मावलम्बियों को बिना किसी धार्मिक भेदभाव के अपनी रूहानियत की तालीम से फैज़याब (लाभान्वित) करते रहे ।