His real younger brother Om Prakash ji was also a saint. please see the link below:
https://www.youtube.com/watch?v=SNXn7mgwL4Y (Copy and paste this link on Youtube).
- परमसंत महात्मा श्री हरनारायण जी सक्सेना का जन्म 20 मार्च 1908 मैं पिड़ावा राजस्थान में हुआ । तब यह प्रदेश राजपूताना कहलाता था । आपका बचपन टोंक राजस्थान में बीता । आप के पिता टोंक प्रदेश में काम करते थे । आपको एक कायस्थ परिवार का शालीनता पूर्ण धार्मिक वातावरण मिला ।
- आप लिखते हैं - टोंक (राजस्थान) से सन् 1925 में हाई स्कूल पास करके मैं कानपुर सनातन धर्म कॉलेज में पढ़ने गया । मेरे भाई साहब बाबू आनन्द स्वरूप जी वहां रहते थे श्रीमान चच्चा जी महाराज की सेवा में जाने वालों में एक पुराने अभ्यासी थे । अक्टूबर 1925 में एक संध्या को वे मुझे भी अपने साथ ले गए और श्रीमान चच्चा जी महाराज के सामने बैठा दिया । थोड़ा सा परिचय दे दिया । श्रीमान जी मुझ से थोड़ी बात करके अपने परिवार के सदस्यों, भाई साहब आदि से बातें करते रहे । लौटते समय मुझसे कहा जब फुरसत हो कभी-कभी हमारे पास आ जाया करो । मेरी आयु उस समय केवल 17 वर्ष की थी । श्रीमान के विषय में मैं क्या समझ सकता था । परन्तु कुछ आकर्षण (खिंचाव) के कारण उनके पास जाने लगा । कुछ दिनों बाद आपने मुझे अभ्यास बतलाया और कराया । आज्ञा दी कि इसे रोज प्रातः कर लिया करो । उनकी दया कृपा से ये अभ्यास तभी से चल रहा है और जीवन पर्यन्त चलता रहेगा । श्रीमान लालाजी महाराज के परिवार से मेरा कोई सीधा पारिवारिक संबंध नहीं था, परन्तु मेरे पूज्य भाईसाहब कानपुर निवासी, बाबू आनन्दस्वरूप जी जिनके द्वारा मैं श्रीमान् चच्चाजी महाराज और फिर श्रीमान् लालाजी महाराज की शरण में पहुंचा, उनका पारिवारिक संबंध था । श्रीमान् लालाजी महाराज के साथ-साथ श्रीमान् मुंशी चिम्मनलालजी मुख्तार भी हुजूर महाराज के दरबार में पहुंचे थे । इन मुंशी चिम्मनलाल साहब की बहिन का विवाह तो महात्मा डॉ॰ कृष्णस्वरूप जी से हुआ था और बड़ी पुत्री का विवाह मेरे भाईसाहब श्री आनन्द स्वरूप से हुआ था । दूर का संबंध होते हुए भी मेरा अध्यात्म का संबंध इन श्रीमान् डॉक्टर साहब के परिवार से घनिष्ठता का हो ही गया । हमारी पूज्य गुरु माताजी ( धर्म पत्नि महात्मा श्रीमान् लालाजी महाराज) के भ्राता उ.प्र. के आबकारी विभाग के निरीक्षक थे । इन्होंने अपनी पुत्री के लिये श्रीमान् लालाजी महाराज से परामर्श मांगा तो श्रीमान् लालाजी महाराज ने मेरा नाम बतला दिया । मुझे आपके पास आते लगभग दो वर्ष हो गये थे । भाग्यवश यही संबंध पक्का हुआ और फरवरी 1928 में विवाह सम्पन्न हो गया जिसमें श्रीमान् लालाजी महाराज की प्रमुख भूमिका रही । वे विवाह के सभी आयोजनों (रस्मोरिवाज) में उपस्थित रहे और दिशा निर्देश करते रहे । इस प्रकार से मेरा पारिवारिक संबंध भी गुरु परिवार से हो गया । फिर मार्च 1928 में ही एक बार श्रीमान् लालाजी महाराज के कानपुर पधारने पर पूज्य भाईसाहब परमसंत बाबू ब्रजमोहन लाल साहब ने मुझे भी दीक्षा के लिये श्रीमान् लालाजी महाराज के सम्मुख प्रस्तुत कर दिया और आग्रह करके मेरी दीक्षा करा दी । श्रीमान् लालाजी महाराज जी इन भाई साहब की बात मान लेते थे । इतनी इन संत पर उनकी कृपा थी । मुझे अपने विद्यार्थी जीवन (1925-1930) में कई वर्ष श्रीमान चच्चा जी महाराज की सेवा में रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ । इसके पश्चात् भी उनकी सेवा में समय-समय पर जाता रहा । गुरुदेव श्रीमान लालाजी महाराज के सन् 1931 में निर्वाण के बाद लगभग 16 वर्ष तक आप सारे सत्संग परिवार का अध्यात्म से सिंचन करते रहे तथा मेरा सम्पर्क आप से ही पूर्ण रूप से बना रहा । मुझे इस मार्ग में सारा मार्ग दर्शन आप ही से मिला और आज भी मिलता है ।
- महात्मा रामचन्द्र जी को सब मतों की धार्मिक पुस्तकों पर विश्वास था । प्रत्येक धर्म के महापुरुषों का वे आदर करते थे, उन की वाणी को पढ़ते और सुनते थे और उनके वचनों का बहुत आदर करते थे । महात्मा जी आजीवन अपने गुरुदेव के आदेश पर दृढ़ता पूर्वक चलते रहे और वह आदेश यह था कि “जिस धर्म में जन्म लिया है उसी के अनुसार कर्म-काण्ड करना चाहिये ।” अतः यद्यपि उनके गुरुदेव इस्लाम धर्म की शरह (कर्म-काण्ड) के अनुसार ही जीवन व्यतीत करते थे वे स्वयं हिन्दू होने के नाते हिन्दू रीति-रिवाजों को बरतते थे । न कभी महात्मा जी ने रोज़ा रखा और न नमाज पढ़ी । अपनी तस्वीर खिंचवाने या उसको प्रेमी-जन अपने घर में रखने का महात्मा जी विरोध न करते परन्तु उसे मूर्ति की तरह पूजने के आप विरुद्ध थे । महात्मा जी अपने चरण छुआना पसन्द नहीं करते थे परन्तु जो प्रेमी-जन चरण छूना चाहते थे उन्हें इसलिये नहीं रोकते थे कि यह प्रथा हिन्दुओं में बहुत पहले से चली आई है कि गुरु जनों को प्रणाम चरण छू कर किया जाता है ।
- अपने आध्यात्मिक वंश के पूर्व महापुरुषों के प्रति उनका बड़ा आदरभाव था । वे कहा करते थे कि हमारे वंश की महानता हमारे पूर्वजों के कारण है । सदा उनके लिए प्रार्थना करते रहते और किसी भी सांसारिक या पारमार्थिक काम में सफलता मिलने पर उन्हें धन्यवाद देते और उसको उन्हीं के अर्पण करते ।
- सिद्धि शक्ति को वे जानते थे परन्तु उनके क़ायल नहीं थे । गन्डे ताबीज़ के भी महात्मा जी पक्ष में नहीं थे यद्यपि वे इस विद्या को भी जानते थे और अपने प्रेमी शिष्यों में से उन्होंने कईयों को यह विद्या बताई और ताबीज देने की इजाजत भी दी । हाँ, यदि उन्हें कोई मजबूर करता तो वे ताबीज लिख देते थे ।
- सदाचार से रहने पर वे बहुत जोर देते थे । उनका कहना था कि जब तक आचरण पूर्णतया ठीक नहीं हो जाता तब तक आत्मानुभव नहीं होता । ज्यादा अभ्यास (रियाज़त) और वज़ीफ़ा पढ़ने के पक्ष में न थे बीच का रास्ता पसन्द करते थे । महात्मा जी का कहना था कि दिल का अभ्यास सबसे ऊंचा है, इसका असर शरीर, मन और आत्मा पर पड़ता है । दिल को काबू में रखना और उसे तरतीब देते रहना यही असली अभ्यास है ।
- प्रार्थना (दुआ) में उनका बहुत विश्वास था लेकिन अपने लिये व दुनियावी फ़ायदे के लिये प्रार्थना (दुआ) करना उन्हें मंजूर न था । दूसरों के लिये हर वक्त दुआ करने को तैयार रहते थे ।
- महात्मा जी का कहना था कि गुरु हर मनुष्य को करना चाहिए लेकिन गुरु बहुत देख-भाल कर करना चाहिये । एक बार गुरु धारण कर लेने पर अपने आपको पूरी तरह अपने को गुरु के आधीन कर देना चाहिए जिस तरह मुर्दा ज़िन्दों के हाथ में होता है ।
- इन संतों के गुरुदेव हुजूर महाराज, इन सबसे इतने प्रसन्न थे कि उन्होंने अपना सब कुछ ही इन्हें दे डाला । कहते हैं उनका यह भी आशीर्वाद था कि इनके वंश में हमारी यह नक्शबंदिया परम्परा सात पुश्तों तक चलेगी । इस समय इनकी चौथी पीढ़ी तो आ ही चुकी है और उनके सदस्य इस संत परम्परा में दीक्षित और कार्यरत भी हैं । आप सब ने फतेहगढ़ भण्डारा, कानपुर भण्डारा व जयपुर, गाजियाबाद तथा सिकंदराबाद भण्डारा आदि में यह सब प्रत्यक्ष रूप से देखा भी है । आशीर्वादानुसार आगे की तीन पीढ़ियां कौन दूर हैं । हमारे आगे आने वाले संत परम्परा के सदस्य ही उसे भी यथार्थ होते हुए देखेंगे, मुझे ऐसा विश्वास है ।
- श्रीमान् लालाजी महाराज, श्रीमान् चच्चाजी महाराज (कानपुर) और श्रीमान् छोटे चच्चाजी महाराज (जयपुर), ये तीनों ही सन्त, बड़े गुरुमहाराज अर्थात परम संत सद्गुरु मौलवी फ़ज़ल अहमद खां साहब से दीक्षित थे । दादा गुरु महाराज ने जब हमारे गुरु भगवान को पूर्ण करके अपना सारा आध्यात्मिक सत्संग उन्हें को दिया तो फिर सारा ही कार्य भार उन्हें संभला दिया तो फिर आपने एक प्रकार से सारा ही कार्य श्रीमान् लालाजी महाराज के लिए छोड़ दिया । इस प्रकार श्रीमान् चच्चाजी महाराज, छोटे चच्चाजी महाराज (जो गुरु महाराज के समय छोटे ही थे) इत्यादि उनके अन्य शिष्यों के पूर्ण करने का कार्य भी श्रीमान् लालाजी महाराज द्वारा ही हुआ । बड़े गुरु महाराज तो निजधाम को पधार गए फिर उनके आदेशानुसार श्रीमान् लालाजी महाराज ने समय पर इन दोनों को पूर्ण किया और गुरु पदवी प्रदान की ।
- हमारे दादा गुरु महाराज के गुरुदेव - हजरत जनाब खलीफ़ा जी साहब (उस सत्संग में इसी नाम से आपको याद किया जाता है) के एक शिष्य और भी थे जिनका शुभ नाम परमसंत सद्गुरु हाज़ी मौलवी अब्दुल गनी ख़ाँ साहब था । बचपन में आप अपने पिताजी के साथ फर्रुखाबाद में रहते थे । इनका भी कार्यक्षेत्र (आध्यात्मिक) श्रीमान् लालाजी महाराज से कुछ अलग नहीं रहा । ये चारों आध्यात्मिक परिवार भी आपस में खूब घुले मिले रहे । हम ऊपर कह आए हैं कि श्रीमान् लालाजी महाराज ने अपनी तथा अपने दोनों छोटे भ्राताओं की संतानों को इन्हीं हुजूर जनाब मौलवी साहब से दीक्षित कराया । इस प्रकार वे ही परिवार के सभी भ्राताओं के दीक्षा गुरु रहे । हमारे गुरु महाराज के हृदय में आपके लिए बड़ा आदर था और बहुत दिनों तक आप दीक्षा न देकर जो भी नया व्यक्ति आता उसे हुजूर जनाब मौलवी साहब के सामने प्रस्तुत करते । फिर जब हुजूर मौलवी साहब ने आग्रह किया कि आप स्वयं दीक्षा क्यों नहीं दें, तब कहीं आपने दीक्षा देना प्रारम्भ किया । यह उनके प्रति हमारे गुरु भगवान का आदर भाव था । इस आदर के आदर्श को भी हमारे सत्संगी भ्राताओं को भली-भांति समझना चाहिए । आदर का यह उत्कृष्ट उदाहरण है जो हमारे पूज्य गुरुदेव द्वारा स्थापित किया गया ।
- कानपुर वाले श्रीमान् चच्चाजी महाराज सद्गुरु की पदवी बहुत पहले ही श्रीमान् लालाजी महाराज द्वारा पा चुके थे । आपने भी यही आदर्श प्रस्तुत किया कि श्रीमान् लालाजी महाराज के जीवनकाल में किसी को भी दीक्षा नहीं दी । दीक्षा का कार्य आपने श्रीमान् लालाजी महाराज के स्वर्गवास के पश्चात् ही प्रारम्भ किया । कुछ ऐसे उदाहरण भी देखने में आए हैं जिनमें दीक्षा का कार्य करने के लालायित वरिष्ठ सत्संगियों ने इस आदर्श आदर भाव को नहीं निभाया ।
- हमारे ये हुजूर जनाब मौलवी साहब हमारे इन तीनों भ्राताओं के परिवारों से इतने घुले मिले थे कि किसी प्रकार का कोई छुपाव नहीं था । यहां तक कि हिन्दू मुसलमान का भी अंतर दिखाई नहीं पड़ता था । यह सब मेरा देखा हुआ है । मेरा अनुमान है कि हमारे श्रीमान् मौलवी साहब के परिवार का सम्पर्क मुस्लिम परिवारों से घनिष्टता का न होकर, इन तीनों परिवारों से अधिक था ।
- हुजूर महाराज द्वारा जो ठोस नींव इस कार्य की डाली गई वह अवश्य ही अप्रत्याशित थी । आपने अपने शिष्यों में केवल श्रीमान् लालाजी महाराज को पूर्ण किया और सारा ही आध्यात्म का कार्य तथा अन्य महानुभावों को पूर्ण करने का कार्य श्रीमान् लालाजी महाराज के लिए छोड़ दिया । श्रीमान् लालाजी महाराज के वरिष्ठ शिष्यों द्वारा इस विषय में पूरी-पूरी जानकारी दी भी गई है जो उपलब्ध भी है । वैसे अपनी जानकारी की बहुत सी घटनाएं मैंने अपनी पुस्तक 'यादें' में सविस्तार दी हैं ।
- सन् 1925 में मैं इसमें आया और सन् 1928 में मुझे श्रीमान लाला जी द्वारा दीक्षा दी गई । इस समय श्रीमान लालाजी के अन्य वरिष्ठ शिष्यों द्वारा फैलाई इसकी अनेकानेक शाखाओं में लगभग सभी से मेरा परिचय तथा सम्पर्क रहा है । किसी भी शाखा में मुझे बहुत सारा साहित्य उपलब्ध होने के उपरान्त भी, ऐसी कोई लिखित अथवा अलिखित साधन पद्धति नहीं मिली, जिसके द्वारा आरम्भ से अन्त तक अवलम्बित होकर साधन की पराकाष्ठा को पहुँचा जा सके । श्रीमान् लाला जी महाराज के वरिष्ठ शिष्यों ने नवागन्तुकों के लिये बहुत कुछ पूजा की विधि लिखी भी हैं परन्तु वह सब प्रारम्भिक अथवा सांकेतिक ही हैं । खोज करने पर इस विषय में जो कुछ भी मुझे श्रीमान् लालाजी महाराज द्वारा अथवा उनके वरिष्ठ शिष्यों द्वारा दिया गया अथवा मिला है - वह मैंने संक्षेप में पाठकों की जानकारी के लिए प्रस्तुत किया है ।
- सच तो यह है कि ध्यान की क्रिया लिखकर (अर्थात शब्दों द्वारा बोलकर) समझाया जाना सम्भव भी नहीं है । ध्यान की क्रिया को शक्तिपात द्वारा कराकर ही सरलता से अनुभव कराया जा सकता है । शब्दों द्वारा कुछ प्रारम्भिक बातें भले ही बतला दी जावें परन्तु ध्यान की पद्धति का वर्णन करना संभव नहीं है । पुराने सत्संगी होने के नाते मुझ से भी बहुधा यह प्रश्न पूछा जाता है, परन्तु मैं भी शब्दों द्वारा उनका सन्तोष नहीं कर पाता जैसा कि ऊपर लिख चुका हूँ । जितना भी लिखकर बताया जा सकता है । लालाजी महाराज ने तथा उनके वरिष्ठ शिष्यों ने लिखा भी है और मैं भी वही न्यूनाधिक सब फिर लिख रहा हूँ जिसके लिये मुझसे कई सत्संगियों ने ( जिन्हें शिक्षा का कार्य दिया गया है ) अनुरोध व आग्रह किया है परन्तु यह सब भी अपर्याप्त ही है ।
- भली भांति समझ लीजिए कि यह जाति-पांति, ऊंच-नीच तो इस संसार में बहुत है पर भगवान नारायण के यहां कुछ नहीं है । जो इस परम्परा को मुस्लिम महानुभावों की समझ कर घृणा करते हैं अथवा इससे बचना चाहते हैं वे संकुचित विचारों के होकर अपनी भारी हानि कर रहे हैं और जो लाभ उन्हें मिल सकते हैं उनसे अपने आपको वंचित रख रहे हैं । अतः यह भावना सर्वथा त्याज्य है । मानव जाति एक है और इसमें भगवान के यहां कोई भेदभाव नहीं है । हमें भेदभाव करके अपने ही पैरों में कुल्हाड़ी क्यों मारना चाहिए ?
- दीक्षा की रस्म भारत में ही नहीं - और देशों में भी प्रायः आध्यात्म शिक्षा का एक आवश्यक अंग रही है । हमारे श्रीमान् लालाजी महाराज द्वारा प्रचारित अभ्यास में भी इसे आवश्यक बतलाया गया है । उनके जितने भी वरिष्ठ शिष्य हुए हैं और जिनके कार्य का संसार के अनेक भागों में प्रचार-प्रसार हुआ वे सभी श्रीमान् लालाजी महाराज द्वारा दीक्षित किए गए थे । बाद में उनके शिष्यों ने भी इस परम्परा को प्रचलित (कायम) रखा । देखने में आता है कि यह दीक्षा की परम्परा सभी धर्मावलम्बियों में पाई जाती है ।
- दीक्षा में गुरु अपने शिष्य को अपने गुरुदेव के माध्यम से परम्परा के सारे गुरुओं से जोड़ देते हैं और एक प्रकार से शिष्य को उन महान आत्माओं को सौंप देते हैं और फिर उनके (उन गुरुओं के) सेवक की भांति शिष्य की सदा शिक्षा देते और संभाल करते रहते हैं ।
- 'दीक्षा देना' को उर्दू भाषा में 'बैअत करना' कहते हैं । बैअत करना अपने आपको 'बेच देने' को कहते हैं । पुराने जमाने में 'गुलामों' के नाम से मानवों को बेचे जाने का इतिहास भी कई देशों में मिलता है । "बैअत" किया हुआ व्यक्ति गुलाम (दास) की स्थिति में होता है । उसे अपने ऊपर कोई अधिकार नहीं होता । सारे अधिकार उसके स्वामी के होते हैं । आध्यात्म में दीक्षित व्यक्ति अपने आपको दीक्षा गुरु को पूर्णरूप से समर्पित करता है जिससे उसके ऊपर गुरु का अधिकार मान लिया जाता है । 'दीक्षा' का शाब्दिक अर्थ है कि 'दि' धातु अर्थात देना है और 'क्ष' धातु अर्थात क्षय करना है अर्थात दीक्षा के समय शिष्य स्वयं को 'दे' देता है और गुरु शिष्य के संस्कारों और कलुषताओं को 'क्षय' या दग्ध कर देता है । अधिकतर आध्यात्मिक उन्नति (तरक्की) का बड़ा सोपान दीक्षा के दिन ही तय हो जाता है चाहे उस समय उसका आभास न हो । गुरुदेव यदा-कदा प्रसन्न होकर दीक्षा के दिन ही आध्यात्म की अंतिम मंजिलों तक पहुंचा देते हैं । आज का शिक्षित वर्ग इसे अनुचित ठहरा सकता है लेकिन आध्यात्म मार्ग में यह अपरिहार्य है ।
- श्रीमान् लालाजी महाराज ने तो इस रीति को वैसा ही रखा जैसा कि पूर्व के गुरुओं द्वारा प्रचलित था, परन्तु उनके कुछ वरिष्ठ शिष्यों ने समय के परिवर्तन का ध्यान रखते हुए इसमें संशोधन किए और कहीं-कहीं तो यह परम्परा समाप्त ही कर दी गई । दीक्षा के बाद शिष्य गुरु परम्परा से जुड़ जाता है और इसके बाद उसके लिए वंशावलि (शिजरा शरीफ) का पाठ करना आवश्यक है ।
- सच तो यह है कि यह विद्या सीमित तथा उपयुक्त संस्कार वालों के लिए ही देने योग्य है । इसका सार्वजनिक रूप से प्रचार नहीं होना चाहिए । जहाँ सैकड़ों-हजारों की संख्या में सत्संगी लोग देखने में आए, वहाँ उनमें से थोड़े से (इने-गिने) व्यक्ति ही अधिकारी दिखाई पड़े । अधिकतर देखा-देखी आए हुए अथवा परीक्षा लेने अथवा अन्य सांसारिक प्रलोभनों को पूरा करने आए ही व्यक्ति मिलते हैं । उचित प्रकार के अभ्यासी बहुत कम मिलते हैं । कम से कम इन अधिकारी लोगों को तो दीक्षा मिल जानी चाहिए जिससे इनका काम पूरा हो सके और अन्य महानुभावों की भांति लटकते न रह जाएं ।
- दीक्षा के समय गुरु शिष्य को सामने बिठलाकर उसके ऊपर के चक्रों को (त्रिकुटी या दशम द्वार तक) अपनी शक्ति के प्रयोग से खोल देता है और अपने गुरु के हाथ में अपने शिष्य का हाथ दे देता है । दीक्षा के समय थोड़ा मिष्ठान बीच में रखते हैं जिसे दीक्षा के समय उपस्थित सज्जनों में बांट दिया जाता है । दीक्षा के समय उस स्थान पर गुरु व दीक्षा लेने वाला व्यक्ति ही उस समय उपस्थित होते हैं, परन्तु गुरु पदवी प्राप्त अन्य व्यक्ति भी वहां उपस्थित रह सकते हैं । इस समय दीक्षा प्राप्त करने वाले व्यक्ति को मुख से बोलकर तथा मन से यह कहना आवश्यक होता है कि "आज दिनांक... को मैंने आपसे दीक्षा ली और मैंने अपना जीवन ईश्वर के प्रेम के लिए समर्पण किया । अब मैं सदा के लिए आपका हो गया । भगवान मुझे इस कार्य में मेरी सहायता करें ।" यह सब शिष्य से तीन बार कहला लेते हैं फिर ध्यान में बिठला कर उसके चक्रों को जैसा ऊपर बताया है, खोल देते हैं । कालांतर में शिष्य धीरे-धीरे स्वयं प्रगति करता हुआ गुरु के संरक्षण में उन्हीं की सहायता से, स्वयं के अभ्यास और प्रयत्न द्वारा प्राप्त चढ़ाई करके ईश्वर की राह में पूर्णत्व प्राप्त करता है ।
- नीचे के चक्रों को सहस्रार तक पार करने पर अभ्यासी के लिए दीक्षा प्राप्त करना आवश्यक हो जाता है । फिर गुरु उसे अपनी शक्ति से त्रिकुटी (दशम द्वार) तक चढ़ा देते हैं फिर उसको स्वयं के अभ्यास द्वारा प्राप्त की हुई स्थिति पर लौटाकर छोड़ देते हैं । बाद में शिष्य गुरु की सहायता से त्रिकुटी को भी पार करके सतलोक में स्थित हो जाता है । संक्षेप में इससे अधिक कुछ नहीं कहा या लिखा जा सकता है ।
- दीक्षा उन्हीं अभ्यासियों को दी जाती है जिन पर यह विश्वास हो जाता है कि उन्होंने सहस्रार तक चढ़ाई कर ली है । परन्तु दीक्षा इसके पहले भी दी जा सकती है, ऐसा उन शिष्यों के लिए होता है जो संस्कारी होते हैं । ऐसे शिष्य एकदम प्रगति कर जाते हैं । हमारे पूर्वगुरुओं ने दीक्षित तथा अ-दीक्षित दोनों शिष्यों में कभी भेद नहीं किया । दोनों को समान रूप से ध्यान कराया (तवज्जह दी) और मार्ग पर चलाया । अन्तर (फ़र्क) बस इतना होता था कि दीक्षित शिष्य की गलती आसानी से माफ नहीं होती जबकि बिना दीक्षा लिए हुए शिष्य के लिए कोई बंधन नहीं होता था । हमारे पूर्व गुरु यह भी कहते थे कि जब तक आत्म साक्षात्कार न हो जाय कोई ग्रन्थ न देखें, नहीं तो ग्रंथों में वर्णित नकली हालत आ जायेगी और भ्रम उत्पन्न होगा ।
- हमारे लालाजी महाराज के शिष्यों में कुछ ने 'दीक्षा' को 'नाम' देना कहा है । कुछ भी कहें, मतलब समर्पण करना और उसे स्वीकार करना ही मुख्य है । कुछ स्थानों में ऐसी भी मान्यता है कि सामूहिक ध्यान करा दिया गया और बस सबकी दीक्षा हो गई । हमारे एक भाई साहब ने यह रस्म रखी कि तीन सत्संग (सिटिंग) आचार्य द्वारा दिए जाने पर दीक्षा स्वतः हो जाती है । अब हमारे पाठकगण स्वयं ही अनुमान लगा सकते हैं कि कौन से नियम कहां तक उचित हैं । श्रीमान् लालाजी महाराज का जो नियम था, मैंने लिख दिया है । उनके वरिष्ठ शिष्यों ने स्थान व समय की आवश्यकता को समझकर कुछ फेर-बदल किए लगते हैं, जिनके विषय में मुझे कुछ भी कहना अथवा लिखना शोभा नहीं देता क्योंकि मैं इन सबसे छोटा हूँ और सदा ही सबके आशीर्वाद की आशा और कामना करता हूँ । .....
- आपने नौकरी जयपुर राजस्थान में करी । आप राजस्थान सरकार में अकाउंट अफसर होकर रिटायर हुए । आपने 37 वर्ष नौकरी की व 37 वर्ष ही पेंशन ली । आपने लंबी उम्र पाई व 95 वर्ष की उम्र में जयपुर में देहांत हुआ । आप अत्यंत विनम्र व अमानी भाव मैं रहते थे । कोमल वाणी, नम्र व्यवहार व अत्यंत दयावान थे । आप को श्रीमान लाला जी द्वारा दीक्षा दी गई , श्रीमान् चच्चाजी महाराज द्वारा पूर्णता हुई व महात्मा डॉ॰ कृष्णस्वरूप जी साहब (श्रीमान्) द्वारा अध्यात्मिक परवरिश हुई ।
- आप लिखते हैं - सन् 1956 के आरम्भ में एक दिन मैं श्रीमान् डॉ॰ कृष्णस्वरूप जी साहब के पास में बैठा था कि अचानक आपने मुझसे प्रश्न कर दिया, “बाबू हरनारायण ! तुम्हें सल्ब करना आता है ?” मैंने उत्तर में केवल सिर झुका लिया । मुझे इसकी विधि पूर्णतया मालूम थी, परन्तु किसी गुरु पदवी के महात्मा ने मुझे इसका अधिकार नहीं दिया था । मैंने कई वरिष्ठ अभ्यासियों को तथा अध्यात्म के शिक्षकों को सल्ब करते देखा भी था । अतः मैं यह तो कह नहीं सकता था कि मुझे नहीं मालूम । श्रीमान ने मेरा भाव तुरन्त पहिचान लिया और कहा “इसमें क्या है, ऐसे होता है (गर्दन घुमाकर) जब आवश्यक समझो, कर लिया करो ।”
- सल्ब करने का मतलब है किसी के शरीर से रोग अथवा कष्ट को निकाल देना । हमारे अध्यात्म में यह साधारण सी क्रिया है । परन्तु इस का खेल करना और दुनियाँ में यह दिखलाना कि देखो हम यह भी कर सकते है इसकी कड़ी मनायी है । इस प्रयोग को अनुचित रूप से करने पर यह शक्ति जैसे दी जाती है वैसे ही वापिस भी ले ली जाती है ।
- सर 1958 में श्रीमान कुछ अस्वस्थ रहने लगे । उस समय आपके दोनों सुपुत्र जयपुर से बाहर ट्रांसफर ड्यूटी पर थे । अतः आपके इलाज आदि का भार मुझ पर आया । आफिस जाते समय आपका सारा विवरण लेता । फिर डाक्टर से कह कर दवा लेता । आफिस पहुंच कर दवा श्रीमान के पास भेज देता । लौटते समय सीधा आपकी सेवा में उपस्थित होता । आप संध्या की चाय अधिकतर मेरे ही साथ पीते और प्रतीक्षा करते रहते ।
- एक बार जब आफिस से आपकी सेवा में पहुँचा तो आप कुछ अधिक अस्वस्थ होने के कारण अचेत से पड़े थे । मुझे तुरन्त याद आया कि मैं सल्ब करने का अधिकार पा चुका हूँ । तीन चार साँसे खेंचने पर ही आप में चेतना आ गई । पूछा, तुम कब से खड़े हो ? निवेदन किया, अभी आया हूँ । इस प्रकार मुझे कई बार श्रीमान के कष्ट को सल्ब करना पड़ा । अब भी जब आवश्यकता होती है इस कार्य को कर लेता हूँ तथा श्रीमान की याद उस समय ऐसी आती है कि जैसे वे मेरे पास खड़े ही नहीं वरन् मुझ में समाये हुए हों और सल्ब करा रहे हों ।
- परमसंत महात्मा श्री हरनारायण जी सक्सेना को श्रीमान लाला जी का 7 वर्ष, श्रीमान् चच्चाजी महाराज का 23 वर्ष, व महात्मा डॉ॰ कृष्णस्वरूप जी साहब (श्रीमान्) का 34 वर्ष का साथ मिला । साथ ही आपको ठाकुर रामसिंह जी महाराज का 45 वर्ष का साथ मिला । आप बताते थे कि ठाकुर रामसिंह जी अकसर आप के घर पधारते थे और आते ही कहते थे कि गुरु चर्चा हो जाए । व कहते कि आप सम्माननीय हैं क्यों कि आप ने गुरु महाराज के घर तोरण मारा है ।
- आप को महात्मा ब्रज मोहन लाल जी का व महात्मा राधा मोहन लाल जी का भी खूब सानिध्य मिला । आप महात्मा राधा मोहन लाल जी को मुंशी भाई साहब कहते थे । आपकी लाला जी महाराज के अन्य शिष्यों से भी खूब मुलाकात थी, जिनमें मुख्य थे –
- डाक्टर चतुर्भुज सहाय जी साहब
- श्री कृष्ण लाल जी साहब
- श्री श्याम लाल जी साहब
- ठाकुर राम सिंह जी साहब
- श्री रामचंद्र जी साहब शाहजहांपुर
- श्री रेवती प्रसाद जी साहब
- श्री शिवनारायण दास जी गांधी साहब
- आप परम पूज्य ठाकुर रामसिंहजी व शिवनारायण दासजी गांधी की बहुत ज्यादा तारीफ करते थे एवं कहते थे इन दोनों जैसा निरअंहकारिता, दास व अमानी भाव अप्रतिम था ।
- आपकी अगली पीढ़ी के पंडित मिहीलालजी टूंडला, सरदार कर्तारसिंहजी गाजियाबाद, चारी साहब मद्रास, सेठ साहब गाज़ियाबाद, दीनू भाई साहब लखनऊ, नारायण सिंह जी भाटी जयपुर, रवींद्रनाथजी कानपुर, दिनेश कुमार जी फतेहगढ़ आदि से भी खूब मुलाकात थी ।
- आपने अपने दोनों पुत्रों को बाद में सरदार कर्तारसिंह जी गाजियाबाद से दीक्षित करवाया । जबकि आप को महात्मा राधामोहनलाल जी द्वारा 1965 में ही गुरु पदवी प्रदान कर दी गई थी ।
- आपने भी छह लोगों को दीक्षा दी व तीन जनों (श्री कौशिक, श्री योगेश, व श्रीमती अरुणा) को गुरू पदवी (इजाज़त ताअम्मा) लिखित रूप में प्रदान की ।
- आप इतना जाप करते थे कि दिन में शायद ही कभी खाली रहते थे । दूसरों के लिए भी खूब जाप करते थे । जाने कितने लोगों को सहायतार्थ मनिआर्डर भेजा करते थे अपनी पेशंन से । वे हमेशा गुरु भाव में ही रहते थे।